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Monday, April 20, 2020

पत्तू

पत्तू लगभग 30 किलोमीटर पैदल चल चुका था, घुटना अब भी दर्द हो रहा था। सात साथी जो घर से साथ चले थे अब काफी आगे निकल गए थे, 6 बज चुके थे और अंधेरा होने को था। 
एक आध किलोमीटर चलने के बाद वो रोड पर बैठ जाता, रोते रोते बड़बड़ाता, "साला कोई रुका नहीं, सब चले गए" फिर अपनी फटी शर्ट से आँसू पोंछता और फिर बड़बड़ाता "घुटने में नहीं मारना था ना" और ज़ोर ज़ोर से रोने लगता।

हुआ कुछ यूं था की घर से पत्तू अपने सात साथियों के साथ निकला था, लॉकडाउन के कुछ दिन तक तो वो वहाँ रुके रहे पर  फिर सब ने मिलकर तय किया की घर चले जाते हैं। एक दिन समान उठा कर बस स्टॉप तक भी गए, पर कोई बस नहीं चल रही थी, सो लौट आए।

फिर तय किया की पैदल ही जाना होगा, कुछ दिन लगेंगे पर किराया भी तो बच जाएगा, रास्ते में खाने के कुछ न कुछ इंतज़ाम हो ही जाएगा।

सुबह सुबह 6 बजे सब पीठ पर बैग लटकाए सब निकल पड़े। मोहल्ले के बाहर निकले ही थे की पुलिस ने डंडे बरसा दिए, भगदड़ मच गई, डंडे सभी को पड़े और बहुत पड़े, पीठ, हाथ, पैर, हर जगह। पत्तू की किस्मत थोड़ी ख़राब थी, उसे एक डंडा घुटने पर भी पड़ गया। हैरानी की बात तो यह थी की इन लोगों को ये पता था की ये होगा, बस कब होगा और कहाँ होगा ये अंदाज़ा नहीं था।

किसी तरह वे हाईवे तक पहुँचे और धीरे धीरे आगे बढ़ने लगे। जैसे जैसे पत्तू का घुटने का दर्द बढ़ रहा था, वैसे वैसे उसके और उन सात लोगों के बीच की दूरी भी बढ़ रही थी।

आँठ बज चुके थे अब अंधेरा हो चुका था, प्लास्टिक की बोतल में पानी खत्म हो चुका था, उसका मोबाइल डिस्चार्ज हो चुका था, उसका घुटना लगभग जवाब देने को था और अब उसके शरीर में ज़रा सा भी दम नहीं बचा था।

किसी तरह वो धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था, तभी दूर  एक पुलिस के बैरिकेड की कुछ बत्तियां नज़र आईं, वो घबरा कर वहीं रुक गया। फिर उसने देखा की एक पुलिस की मोटर साईकल की रोशनी उसकी तरफ आ रही है। उसने अगल बगल देखा एक छोटी सी पुलिया नज़र आई, वो किसी तरह लंगड़ाते लंगड़ाते सड़क से उतरा और पुलिया से सट कर खुद को छुपा लिया।

मुँह प्यास से सूख चुका था, अंतड़ियां भूख से दुख रहीं थी, पर डर .... डर इतना हावी था की उसने छुपना ही सही समझा। मोटरसाइकिल ठीक उस पुलिया पर आकर रुकी। उसने छुपते हुए देखा, दो पुलिसवाले डंडा हाथ में लिए इधर उधर देख रहे थे, मोटरसाइकिल की रोशनी में उनकी वर्दी हल्की हल्की नज़र आ रही थी। उसे एक पल के लिए लगा की वो उठ कर उनके पास चला जाए, पर जैसे ही उसने अपना जिस्म हिलाना चाहा, एक पुलिसवाला दूसरे से बोल पड़ा, "छोरा जेसा तो दिखा था, उरे ही खड़ा था", "जाणे दे , जानवर होगा कोई"।

वो सहम कर वापस पुलिया पर टिक गया, आँखें बंद कर अंधेर में बैग के अंदर पानी की बोतल ढूंढने लगा।

दोनों पुलिसवाले वापस बैरिकेड पर पहुँचे, वहाँ  कुछ लड़के एक बगल के तंबू में ज़मीन पर बैठ कर खाना खा रहे थे, आँठ बज कर 15 मिनट हो चुके थे, खाने का टाइम था। मोटरसाइकिल से उतर कर एक पुलिसवाला वहाँ बैठे अपने साहब के पास गया, " साब कोई जानवर होगा, छोरो तो ना दिखो उधर, अंधेरो है, कहीं पहले ही किसी गाँव में रुक गो होगो"। 

साहब ने गर्दन घुमाई और उन लड़कों की और देखते हुए कहा, "फ़ोन ट्राय करते रहो, ज़्यादा पीछे नहीं होगा, वैसे तुम लोग एक छोटे से लड़के को कैसे पीछे छोड़ आए, शर्म आनी चाहिए, ज़िम्मेदारी नाम की कोई चीज़ है की नहीं"?। साहब ने आवाज़ बढ़ाते हुए गुस्से से कहा ।

साहब कुछ देर तक बैठे बैठे सोचते रहे, फिर उठ कर अपनी जीप की और जाने लगे।

"ओ जितेंदर, लड़कों को खाना ठीक से खिला दियो, और सुबह कुछ पैसे देकर पेट्रोलिंग जीप में बॉर्डर तक छोड़ दियो"

"और हां सुन !!! वो लड़का आए ना रात में अगर, वो क्या नाम है उसका, पत्तू। तो मुझे फ़ोन कर दियो, क्या पता कहीं रुका ना हो, इनके पीछे पीछे ही आ रहा हो"

इतना कह कर साहब ने जीप शुरू की और चले गए।

सुबह पुलिया के बगल में नीचे, वही दो पुलिसवाले खड़े थे।

"अरे जितेंदर, वो ही छोरा दिखे है, बेहोश है शायद, साँसे चल रही है का इसकी ? देख तो जरा ?
साँप वाम्प तो ना काट लिया इसको"।

पानी की वो खाली बोतल पत्तू के हाथ में अब भी थी।

Pic from: 
https://www.thenewsminute.com/article/transport-shut-covid-19-lockdown-indian-migrant-workers-begin-walking-home-121279?amp

Saturday, December 1, 2018

360 सेकंड ...

कार की चाबी घुमाने से पहले शीशे में देखा, सुमन मुँह फुला  कर पीछे बैठी थी । 

"अब खुश" ?

ऑफिस की पार्टी थी, और वह कांजीवरम पहनना चाहती थी, मेरे बड़े समझाने के बाद जीन्स पर राज़ी हुई थी।

"कुछ ही घंटों की बात है सुमन प्लीज्, साड़ी अजीब लगेगी" 

"मैंने कहां कुछ कहा" ?

मैंने चाबी घुमा दी और ऐसी का पंखा 4 पर कर दिया, वो अब भी गुस्से से बाहर देख रही थी।

"अच्छा बाबा सॉरी, जाओ बदल लो"

"ल" पर "ओ" की मात्रा लगने तक वो दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर के जा चुकी थी।

कुछ देर बाद हम सिग्नल पर थे, 

"360 सेकंड का भी कोई सिग्नल होता है" ?

उसका गुस्सा अब भी उतरा नहीं था, वो आगे की सीट पर बैठने को तैयार नहीं थी। मैं मेमसाब का ड्राइवर लग रहा था पर कांजीवरम में वो बहुत सुंदर लग रही थी।

सिग्नल के बगल में फुटपाथ पर एक 8-10 साल की बच्ची, एक साल के बच्चे के साथ खेल रही थी, शायद भाई था। उनकी माँ कुछ ही दूर गाड़ियों के शीशे ठकठाकाती पंखे बेच रही थी। जैसे ही उस लड़की ने हमारी गाड़ी देखी, वह दौड़ती हुई आई और पीछे का शीशा ठकठकानेलगी, उसके मैले हाथों ने शीशा गंदा कर दिया। सुमन वैसे ही गुस्से में थी, उसने उसे हाथ से जाने का इशारा किया,पर वो फिर भी ठकठाकाती रही।
"आज इसकी ख़ैर नहीं"

सुमन ने शीशा नीचे किया और ज़ोर से चिल्लाई।

"ऐ पागल लड़की चल भाग यहाँ से" !!!

आवाज़ इतनी ऊँची थी कि वो लड़की सहम गई और तुरंत भाग कर वापस अपने भाई के बगल में बैठ गयी, अब वह खेल नहीं रही थी।

150 सेकंड

मैं उस लड़की की ओर देख रहा था, शीशे में देखा तो सुमन भी। वह लड़की टकटकी लगाए सुमन की ओर वापस देखे जा रही थी।

"सुनो, उसे बुलाओ और कुछ दे दो"
सुमन ने धीरे से कहा, उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था।

मैंने टोल टैक्स कि रसीदों के बीच में से एक दस का नोट निकाल कर सुमन की ओर बढ़ा दिया।

"तुम ही दे दो, सही रहेगा"

सुमन ने दस का नोट हाथ में लिया, कर का शीशा नीचे किया, 

"सुनो, इधर आओ"

30 सेकंड 

वो लड़की दौड़ते हुए आई, सुमन ने मस्कुराते हुए कहा

"ये लो, पर ऐसे किसी की गाड़ी का काँच गंदा नहीं करते, ठीक है" ?

15 सेकंड

"नहीं नहीं दीदी, पैसे नहीं चाहिए"

"वो आपकी साड़ी दरवाज़े के बाहर थोड़ी रह गई है, सड़क पर गंदी हो रही है"
उसने अपनी उँगली से नीचे की ओर इशारा करते हुए कहा।

सिग्नल हरा हो चुका था, पीछे वाली गाड़ी ने ज़ोर से हॉर्न बजाना शुरू कर दिया।
मैंने पीछे देखा, वो लड़की और सुमन दोनों एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे।

हॉर्न दुबारा बजा, इस बार ज़्यादा देर तक, लड़की वापस अपने भाई के पास भाग गई। मैंने भी गाड़ी आगे बढ़ा दी, दरवाज़ा खुल कर बंद होने की आवाज़ आई, सुमन ने साड़ी अंदर ले ली थी। करीब 20 मिनट का रास्ता बचा था ,वो शून्य में कार के बाहर देख रही थी, शीशा अब भी खुला था, सारे रास्ते हम चुप रहे। हवा से उसके बाल उड़ रहे  थे,पर उसे शायद एहसास ही नहीं था की शीशा खुला रह गया है। पहुँचने के बाद मैंने दरवाज़ा खोला,

"सलाम मेमसाब" !!

मैंने माहौल हल्का करने की कोशिश की,  पर उसने कोई जवाब नहीं दिया।

"सॉरी , बहुत सुंदर लग रही हो, मुझे ज़िद नहीं करनी चाहिए थी"।

उसके चेहरे पर अब गुस्सा नहीं था, पर कुछ और भी नहीं था।

उसने अपना पल्लू ठीक किया...

वो दस का नोट, वो दस का नोट अब भी उसकी मुट्ठी में सिकुड़ा हुआ पड़ा था।



Pic from: 
https://www.google.com/imgres?imgurl=http%3A%2F%2F1.bp.blogspot.com%2F-Cz22mhDKmOQ%2FVm5iSnKL3sI%2FAAAAAAAAIpE%2F4tnwZGZY9NY%2Fs1600%2FBegger_girl.jpg&imgrefurl=http%3A%2F%2Fprabir-citizenjournalist.blogspot.com%2F2015%2F12%2Fchild-traffickers-rope-in-8-year-old.html&docid=8bAhG25cf5jAbM&tbnid=xVa7K7imGwLc2M%3A&vet=10ahUKEwicyI6Bg_7eAhUbiHAKHWaeBkgQMwiJASg9MD0..i&w=800&h=533&itg=1&client=safari&bih=837&biw=1440&q=begging%20girl%20at%20car%20window&ved=0ahUKEwicyI6Bg_7eAhUbiHAKHWaeBkgQMwiJASg9MD0&iact=mrc&uact=8





Saturday, November 24, 2018

सूखा पेड़

आंगन के बीच लगा वो पेड़ अब लगभग सूख चुका था।  माँ को कितनी बार कहा था, अगर ठीक से उग नहीं रहा है तो कटवा दो। 
रेणु टीचर भी कहती थी कि घर के  आंगन में सूखा पेड़ शुभ नहीं होता । पर ताज्जुब तो ये था की अब भी उसकी कुछ पत्तियां बची कैसे हैं ?
मैं घर के पीछे, आंगन में बैठे बैठे धूप सेंकते हुए ये  सोच रहा था। बहुत दिनों बाद छुट्टियों पर घर लौटा था।

"सूख गया है, उखाड़ क्यों नहीं देता " ?

माँ रसोई से चिल्लाई,
माँ रसोई में दोपहर का खाना पका रही थी, तभी अचानक आंगन के दरवाज़े को किसी ने ज़ोर से धक्का दे कर खोल दिया ।  वह सीधा अंदर घुस गया, फटे कपड़े, बाल धूल भरे  लंबे और गले में न जाने कितनी मालाएँ थी, कुछ छोटी कुछ लंबी। एक हाथ में पुराना स्टील का डिब्बा था , हैंडल वाला। वो जैसे दूधवाले लाते हैं ना वैसा पर उस पर ढ़क्कन नहीं था। दूसरे हाथ में अलमुनियम के फॉयल में लिपटा कुछ बासी खाना था, जिसे वो मुठ्ठी में जकड़े हुए था ।

"अरे कौन हो ? , जाओ भागो " !

" ऐसे घर में क्यों घुस रहे हो" ?

मैंने तुरंत खड़े होते हुए कहा।
मैंने एक कदम आगे बढ़ाया, उसने भी अपना हाथ आगे बढ़ा दिया,  वो हाथ जिसमें उसने बासी खाना पकड़ रखा था।

"कुछ नहीं है, चले जाओ "

उसने हाथ नीचे कर लिया, मेरी ओर देखा, फिर से हाथ उठाया, मैंने सर हिला कर "नहीं " का इशारा किया।
वह इधर उधर आंगन में देखने लगा, दो कदम आगे आया और उस सूखे पेड़ की बगल में खड़ा हो गया । मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था, डर सा लगने लगा था अब ।
वो बहुत देर तक उस पेड़ को देखता रहा। कुछ देर यूं ही घूरने के बाद उसने अपनी गर्दन ऊंची की और मुझे देख मुस्कुराने लगा।

"चले जाओ, कुछ नहीं है"
"एक बार दिया, तो फिर ये रोज़ आएगा"
"अरे क्या हुआ , कौन है ?"
"कुछ नहीं माँ कोई नहीं है "
"खाली बैठा है तो  वो पेड़ ही उखाड़ दे  बेटा "
"हाँ ... माँ "
"जाओ चले जाओ, माँ आएगी तो मुसीबत हो जाएगी"

उसका मुस्कुराना अब भी रुका नहीं था, वो  उस सूखे पेड़ की तरफ  अब भी देख रहा था। मैं आंगन में कुदाली ढूंढने लगा, स्टील के दो ड्रमों के पीछे पड़ी थी, आख़िर मिल ही गयी।
मैंने कुदाली हाथ में उठाई और जैसे ही मुड़ा तो सन्न रह गया। वो पागल उस स्टील के डिब्बे से उस सूखे पेड़ पर पानी डाल रहा था। मैं थोड़ी देर खड़े खड़े उसे यूं ही देखता रहा। उसने सारा का सारा पानी उस पेड़ पर उड़ेल दिया, गर्दन ऊंची की मेरी तरफ देख मुस्कुराया और फिर चुप चाप बाहर चला गया।

"अरे उखाड़ दिया क्या ? "

मेरे हाथ से कुदाली छूट गयी, मैं पेड़ की ओर बढ़ा उसकी जड़ें तर हो चुकी थी ।

"क्या हुआ , उखाड़ दिया क्या ?"

"नहीं माँ , एक बार पानी डाल कर देख लेते हैं, शायद वापस उग जाए ।"


पेड़ के ठीक बगल में फॉयल में लिपटा बांसी खाना पड़ा हुआ था।

Saturday, November 3, 2018

थर्ड AC - भाग - २

मैने मुस्कुराकर सर हिला दिया, 
"नहीं होगी"   
अपना सामान सीट के नीचे रख कर वह उसी तरह पैर रख कर बैठ गयी, जिस तरह कुछ देर पहले उसी सीट पर मैं बैठा था । ट्रेन चल पड़ी, मैं बगल की सीट पर बैठे बैठे ये याद करने की कोशिश कर रहा था की बाहर चार्ट में  40 नंबर की बर्थ पर क्या नाम लिखा था ?

तभी TC आया और हमारे बीच में खड़ा हो गया, मैंने अपनी जेब से टिकट निकाल कर आगे कर दी और फिर उसने भी।

मेरी टिकट वापस करने के बाद TC ने उसकी टिकट हाथ में ली, कुछ देर देखा, कोट की अंदर वाली जेब से पेन निकाल कर टिकट पर चार टिक लगाए और फिर थोड़ी देर रुक गया, फिर अपना चार्ट देखा और उसकी तरफ देखते हुए बोला,

"मैडम ID दिखाइए"

वह ज़रा सी घबरा गई, कांपते हाथों से ID पर्स से निकाला और TC को दे दिया, वह ये उम्मीद लगाए बैठी थी की TC कुछ ना कहे और मैं इस उम्मीद में था की कम से कम उसका नाम तो ले।

उसने मेरी तरफ देखा, मानो उसकी आँखें  डाँटते हुए मुझसे ये कह रही थी "आप तो कह रहे थे कि कोई प्रॉब्लम नहीं होगी" !!। 
मैंने उंगली अपने होंठों पर रखी, और इशारा किया "sssshh"।

कुछ देर बाद TC ने पांचवा टिक लगा कर उसे उसका ID और टिकट वापस कर दिया। उसने लंबी सांस लेते हुए टिकट हाथ में लिया फिर मेरी ओर देखते हुए मस्कुराकर कहा .. 

"थैंक यू , विशाल" !!

मैंने हैरानी से अपनी भौहें तानी ... "जी" ??
"आपको ... ? आपको मेरा .....  ? "

उसने फिर मुस्कराते हुए मुझे बीच में ही रोकते हुए कहा 

"लड़की अगर ट्रेन में अकेले सफर कर रही हो, तो चार्ट तो उसे भी देखना पड़ेगा ना " ?


Pic From: https://www.inmarathi.com/unknown-rules-about-indian-railway/indian_railways-marathipizza1/

Wednesday, October 31, 2018

थर्ड AC - भाग - १


थर्ड एसी ... थर्ड एसी वो बीच का रास्ता है जिसमे हम जैसो को ठंडी हवा भी मिल जाती है और थोड़े बहुत पैसे भी बच जाते हैं ... हर बार की तरह बाहर चार्ट में अपने नाम के ऊपर नीचे देखा , सब बुज़र्ग ही थे, 
"भाग में ही लिखा है साला" !

ख़ैर, अप्पर बर्थ मिली थी पर कोने में  35 नंबर पर अंकल बैठे थे सो साइड बर्थ 40 पर पैर लंबे कर के बैठ गया ।

फिर देखा, सफ़ेद सलवार सूट में वो सूटकेस घसीटते हुए सबसे छुअन बचाते हुए दरवाज़े से चढ़ी, खुशी हुई पर इतनी भी नहीं , क्योंकी मैं बाहर चार्ट देख चुका था। 

लगा की वो बगल से गुज़र ही जाएगी , पर रुक कर अपने कान के ऊपर लट डालते हुए पूछने लगी , आपकी सीट कौनसी है ?  बहुत सुंदर थी ।

सवाल मुझसे किया था, पर बगल की सीट से वो अंकल उठ गए, मैं चुपचाप अपनी सीट पर जा कर बैठ गया ।

कुछ देर बाद फिर आवाज़ आई, 
सुनिये !!  

"वो age में 25 का 52 हो गया है, कोई प्रॉब्लम तो नहीं होगी ना ... ?? 


Pic from: https://www.ixigo.com/indian-railways-to-remove-reservation-charts-from-7-major-stations-story-1124299

Monday, October 15, 2018

मंदिर

मेरे दफ़्तर का रास्ता मंदिर के सामने से गुज़रता था, वह बाहर बैठी रोज़ मुझे देख कर मुस्कुराती, एक हाथ में गेंदे का हार लिए तमिल में कुछ कहती , मैं मुस्कुराते हुए "नहीं अम्मा" कहते हुए हाथ दिखाता हुआ निकल जाता ।

यह रोज़ होता था, वह रोज़ हाथ में फूल लिए कुछ बोलती, मैं रोज़ मुस्कुराता हुआ निकल जाता ।

बचपन से कभी खुद मंदिर नहीं जाता था, माँ बहुत ज़िद करती थी पर प्रसाद के अलावा मुझे कोई और कारण नज़र नहीं आता था। फिर एक दिन माँ का मैसेज आया , व्हाट्सएप्प पर

"बेटा मंदिर में फूल चढ़ाना"

माँ को ठीक से मोबाइल इस्तेमाल करना भी नहीं आता , और आज न जाने कहाँ से वॉट्सएप सीख कर वह मुझे ये लिख रही है ...

"टिंग" , फिर मैसेज आया

"तुम्हारी माँ को अच्छा लगेगा"

माँ भी ना ...

अगले दिन शाम को दफ्तर से लौटते समय कार्तिक साथ आया, मंदिर पर बाइक रोकी पर वह अम्मा वहाँ  नहीं दिखी। मैंने उसकी बगल में बैठने वाली से फूल ले लिए, वह मुझे पहचान गई थी।
वापस बाहर निकलते समय उसी फूल वाली से कार्तिक को पूछने को कहा
"इससे पूछो वो अम्मा कहाँ हैं "?
कार्तिक ने उससे तमिल में कुछ बात की

"वह अम्मा अब नहीं रही" !!
"क्या" ??

मैं छह महीने तक उसे देख मुस्कुराता हुआ  निकलता रहा और आज जब उससे मिलना था तब ...

कुछ सूझा नहीं क्या जवाब दूं  ? खैर,भारी मन से वापस बाइक की ओर लौटने लगा, फिर कुछ याद आया
"कार्तिक वह अम्मा रोज़ मुझे तमिल में कुछ कहती थी"
"ज़रा उस औरत से पूछो तो, क्या कहती थी" ?

कार्तिक वापस बाइक से उतर कर उस औरत के पास गया और  मेरी ओर इशारा करते हुए उससे तमिल में कुछ बात की

फिर वापस आकर बाइक पर बैठ गया,

"क्या कहा उसने , अम्मा रोज़ मुझे क्या कहती थी" ?
उसने मेरे कंधे को थपथपाते हुए  कहा

"कुछ नहीं, वह बस ये कहती थी कि"

""बेटा मंदिर में फूल चढ़ाना, तुम्हारी माँ को अच्छा लगेगा .."

#mbaria
13 अक्टूबर 2018





Saturday, March 24, 2018

लैपटॉप, पर्दा और चार दोस्त ...

एक लोहे की सलाखों वाली खिड़की है, जिस पर एक पुरानी चद्दर लगी हुई है, उस फटी चद्दर को ये समझा कर वहां टांगा गया है कि वो पर्दा है। ये तथाकथित पर्दा खिड़की के ऊपरी दोनों कोने में लगी दो बड़ी छोटी जंग लगी कीलों पर किसी भीड़ से भरी लोकल ट्रेन में सफर कर रहे  एक मुम्बइये जैसे अपने दोनों हाथों पर लटका है ।

ज़मीन पर एक प्लास्टिक की चटाई बिछी है, जो करीब पाँच छह जगह पर सिगरेट के ठूंठों से जलाई गई है, ठीक बीच में एक हिंदी का उम्रदराज़ अख़बार सीना चौड़ा किये लेटा है, हिंदी के उम्रदराज़ अख़बारों की ये पुरानी आदत है कहीं भी फैल कर लेट जाते हैं। उसी अख़बार के ठीक बीच में एक स्टील का छोटा ग्लास बड़ी मुश्किल से अपना बैलेंस बनाए खड़ा हुआ है। एक चौथाई पानी से भरे इस स्टील के ग्लास में , सिगरेट के पाँच छह ठूठों की लाशें पड़ी हैं, जो फूल कर ऊपरी सतह पर तैर रहीं है, कुछ जली हुई माचिस की तीलियाँ भी हैं, जो इन लाशों के नीचे तले में पड़ी हैं , और वो जैसे शाम होती है ना, ठीक उसी तरह , वक़्त के साथ साथ पानी का रंग भी भूरे से और भूरा होता जा रहा है । ग्लास में अब भी इतनी जगह है कि लगभग और दस बारह ठूंठे आराम से आत्महत्या कर लें ।

इसी बिछे हुए अख़बार के एक कोने में कुछ तले हुए लावारिस मूंगफली के दाने पड़े हैं जिनके बदन पर एक बड़ा सा काला निशान है,ये सब अपने झुंड से बिछड़ गए हैं । इन दानों में कुछ नंगे हैं तो कुछ अब भी अपनी इज़्ज़त छिलके से बचाने की कोशिश में हैं । एक स्टील की घायल प्लेट भी हैं जिसमें मूँग दाल के कुछ दाने प्याज़ के टुकड़ों के साथ दोस्ती करने की कोशिश कर रहे हैं । कुछ साबूत प्याज़ भी हैं  जो चटाई की सरहद के पार घुसपैठ करने को तैयार खड़े हैं,सरहद पार करते ही  हलाल कर दिये जाएंगे । अंडों के छिलके पड़े हैं जो एक दूसरे की गोद में बैठ कर कम जगह में भी अडजस्ट कर रहे हैं। नमक और  लाल मिर्ची  की अधखुली पुड़ियाँ इन अंडों के छिलकों को अब तक सांत्वना दे रहीं है।
चटाई के बगल में एक दीवार है, चिप्स और कुरकुरे की कुछ महँगी खालें पड़ी हैं, एक नमकीन का पैकेट भी है,सी थ्रू ड्रेस वाला , बेशर्म पेट फुलाये चटाई की सरहद के पार ज़मीन पर पड़ा हुआ है, शायद अब तक किसी की नज़र ही नहीं पड़ी उस पर ।
चार ग्लास हैं  काँच के, अलग अलग आकार के कोई बड़ा कोई छोटा, कोई लंबा कोई मोटा, और हाँ एक स्टील का भी है। इन सभी ग्लासों के हलक में करीब 60 ml शराब पड़ी है जिसकी शादी कुछ ही देर पहले एक डुप्लीकेट मिनरल वाटर बोतल के ठंडे पानी से हुई है, स्टील के ग्लॉस में 60 ml से ज़्यादा शराब है, बाहर से कुछ नज़र नहीं आता ना इसलिए ज़्यादा ले ली गयी है, वो जैसे करप्शन होता है अपने देश में वैसे ही।उस घायल स्टील की प्लेट से कुछ दूर एक बर्फ़  की सफेद ट्रे पड़ी है जिसमें अपने अपने दड़बों में पड़े पड़े कुछ बर्फ़ के टुकड़े रो रहे हैं, इनमें से कुछ टुकड़े ग्लासों में हो रही उस शादी में अपना दम ख़म खपा रहे हैं।
सोड़ा की एक प्लास्टिक बोतल है, ग्लास में हो रही शराब और पानी की शादी में उसका बहुत बड़ा हाथ है, और इस बात की उसको इतनी खुशी है की, ज़मी पर लेटे लेटे अपने हाथ ऊपर किये नागिन डांस कर रही है  ।
एक पंखा छत पर घूम रहा है जो सिर्फ आवाज़ से ही अपने होने का एहसास दिला रहा है,सोड़े की बोतल द्वारा हो रहे उस नागिन डांस में उसका भी कुछ हाथ है। हवा बाज़ हैं दोनों के दोनों ।

दो सिगरेट के डब्बे पड़े हैं अलग अलग ब्रैंड के , एक अब भी साबुत है और दूसरे के लगभग तीन किरायेदार घर छोड़ कर जा चुके हैं।  एक  छोटी मगर दिलेर माचिस की डिबिया अकेले इन दो डब्बों को आँख दिखा रही है। स्त्री सशक्तिकरण का शायद इससे बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता। उस अख़बार, उस प्लेट ,उन ग्लासों के आस पास चार लोग बैठे हैं , चार दोस्त । कमरे में सिगरेट का धुआं भरा पड़ा है जो उस तथाकथित पर्दे को चकमा दे कर ज़रा ज़रा करके बाहर हो रहा है ।

बगल में एक लैपटॉप पड़ा है, जिसपर किसी की बेफवाई बयां करने वाला एक पुराना गाना चल रहा है, उन चारों में से एक दिलजला , शून्य में झांकता हुआ कश लगा रहा है, गाने के बोल सिर्फ वही सुन रहा है, बाकी तीन संगीत की दीवार पर बैठे हुए हैं। एक का ध्यान दूर पड़ी उस सस्ती शराब की बोतल पर है , जिसमे पड़ी शराब की मात्रा ये तय करेगी कि खाना कब शुरू करना है। दूसरा जो आर्थिक तौर पर थोड़ा कमज़ोर है अपने ज़हन में ये हिसाब लगा रहा है कि जो ख़र्चा हुआ है उसे चार बराबर भागों में बांटने के बाद, बाकी तीनों से उसे कितना कितना पैसा लेना है।  मैं चटाई के इक कोने में बैठा ये सब देख रहा हूं, हम चारों भी तो उन ग्लासों की तरह तो थे, एक दूसरे से एकदम अलग बिलकुल जुदा, फिर भी साथ साथ।
"ठक ठक ठक" दरवाज़े पर कोई आया है शायद, खाना आ गया होगा।  "ठक ठक ठक"

पलट कर देखा , टाई पहना एक वेटर खड़ा था। आस पास देखा, तो न वो कमरा था, न चटाई, न पंखा न वो खिड़की न चादर, न वो तीन दोस्त,  सिर्फ़ एक महंगा रेस्टॉरेंट था, अंधेरा अँधेरा सा था वहां।

वेटर चमड़े की चमकीली छोटी सी फ़ाइल में बिल लिए खड़ा था,
"Sir ..."

मैंने बिल हाथ में लिया

"ब्लैक लेबल 60 ml - two unit, 650 ml - soda one unit, Tax ...
total Rs,1420 "

मैंने उस बिल को करीब से देखा ,  उस चमड़े की फ़ाइल में 500 के तीन नोट डाले , कुर्सी से सटा लैपटॉप का काला बैग उठाया और जैकेट कंधे पर लटकाए बाहर निकल गया जैसे आया था वैसे ही ...

अकेले ...

जाते जाते मुड़ कर देखा तो उसी रेस्टॉरेन्ट की वो बड़ी खिड़की नज़र आई, सफ़ेद पर्दा बहुत सुंदर लग रहा था।

और हाँ अब लैपटॉप पर गाने नहीं बजते ...

#mbaria

Saturday, November 28, 2015

आखरी ख़त


रात के करीब साढ़े दस बज चुके थे, मैं चैनल बार बार बदल कर देख रहा था ।  हर चैनल पर प्लेन का जलता हुआ मलबा दिखाया जा रहा था।  मैं कॉफ़ी पीते हुए चुपचाप देख रहा था, बहुत दिनों बाद ऐसा कोई  हादसा हुआ था ।  करीब दो सौ के ऊपर लोग मारे गए थे , सब जितने प्लेन में सवार थे, सब।
कितनी दर्दनाक मौत रही होगी, फ़िर सुना कुछ हल्की हल्की सी आवाज़ आ रही थी, ध्यान दिया तो देखा मोबाइल बज रहा था।
सुरुचि ! इस वक़्त ? सुरुचि मुझे क्यों फ़ोन कर रही है ? बहुत अजीब सी बात थी।

हेल्लो !!
फ़ोन के उस ओर से सिर्फ़ रोने की आवाज़ आ रही थी, मैं हेल्लो हेल्लो कर रहा था और उसका रोना रुक ही नहीं रहा था।
सुरुचि क्या हुआ, तुम रो क्यों रही हो ?  हुआ क्या है ?
उत्पल किधर है,  हुआ क्या है, सब ठीक है ना ?
राजीव, उत्पल, उत्पल उस प्लेन में, वो कहते कहते रो पड़ी, फ़ोन नहीं लग रहा है राजीव, मुझे बहुत डर लग रहा है राजीव।
क्या हुआ है सुरुचि मुझे ठीक से बताओ कहाँ है उत्पल, तुम रो क्यों रही हो ?
राजीव, उत्पल कंपनी के US प्रोजेक्ट के लिए आज उसी प्लेन से गया है।
मुझे कुछ पता नहीं चल रहा है राजीव, उसका फ़ोन नहीं लग रहा है और एयरपोर्ट वाले कोई जवाब नहीं दे रहे हैं।
वो रोते रोते सब बता रही थी,

तुम चिंता मत करो सब ठीक होगा , मैं पता कर के तुम्हें वापस फ़ोन करता हूँ
डरो मत , सब ठीक होगा।

मैंने एयरपोर्ट पर दो तीन फ़ोन किये, सुरुचि का शक सही था।
मैंने टीवी बंद किया और सहम कर अपने सोफ़े पर बैठ गया, उत्पल को मैं कॉलेज के ज़माने से जानता था, मेरा पक्का यार था, मेरे भाई जैसा था।
कॉलेज के दिन ज़हन में आने लगे , उत्पल, मैं और सुरुचि साथ में ही तो थे।
मैं सुरुचि को बहुत चाहता था, और  मुझे लगता था की वो भी मुझे चाहती है, पर फ़िर एक दिन उत्पल मेरे पास एक कार्ड लेकर आया और उसने कहा की वो कल सुरुचि को वो कार्ड देने वाला है।

कार्ड बहुत सुन्दर था, और उस पर लिखा था " आई लव यू सुरुचि "

उस दिन के बाद  मैंने अपनी ज़िन्दगी को अलग दिशा में पलट दिया, उन दोनों के लिए बहुत खुश था मैं।
वो  बात जो अंदर थी , अंदर ही रहने दी मैंने।

आज जाने क्यों ये सब याद आ रहा था, जाने क्यों ?

आज मेरा यार, मेरा दोस्त, मेरा भाई नहीं रहा।
मैं उस प्लेन में लोगों की दर्दनाक मौत के बारे में सोच रहा था, मुझे कहाँ मालूम था की मेरा दोस्त भी उसी में से एक होगा।

एक महीना बीत गया था अब, मैं दो तीन दफ़े सुरुचि से मिल आया था, उसके भी आँसू अब सूखने लगे थे पर उसकी ख़ामोशी, उसकी वो पथ्थर बन चुकी आँखें, सिर्फ़ आँठ महीने ही तो हुए थे उनकी  शादी को।

फ़िर एक दिन, घर में उसी सोफे पर बैठा था की दरवाज़े के बगल में पड़े हुए ख़तों के ढेर पर नज़र गयी।
इस सब भाग दौड़ के बीच, वक़्त ही नहीं मिला।
मैं एक एक कर के सब लिफ़ाफ़े खोलने लगा, क्रेडिट कार्ड के बिल, फ़ोन के बिल, कुछ मैगज़ीन।
फ़िर एक खत देखा तो सकपका गया, लेटर उत्पल के ऑफिस से आया था।

जिस दिन वो हादसा हुआ था उसके एक दिन पहले ही पोस्ट हुआ था, मैंने फ़टाफ़ट, लिफ़ाफ़ा खोला, अंदर सिर्फ एक ही पन्ना था, उत्पल ने कुछ लिखा था।

लिखा था

"जब तक तुम्हें ये लेटर मिलेगा मैं बहुत दूर जा चूका हुंगा …………


मैंने फ़िर से पढ़ा की शायद मैंने कुछ गलत पढ़ लिया हो, पर मैंने पहली दफ़ा जो पढ़ा वो ठीक ही था, क्या राजीव को पता था की ये सब होने वाला है ?
ये सब क्या है ? उसे कैसे पता की प्लेन क्रैश होने वाला है।


राजीव ,
मेरे दोस्त , मेरे भाई , जब तक ये लेटर तुम्हें मिलेगा मैं बहुत दूर जा चूका हूँगा, मुझे माफ़ कर देना, कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो शायद मैं तुमसे आँख मिला कर नहीं कह पाता इसलिए लिख रहा हूँ। मैंने अपनी ज़िन्दगी से जुडी हर चीज़ तुम्हें बताई है, सब कुछ तुम जानते हो पर एक चीज़ है जो मैंने तुमसे, सुरुचि से सब से छुपा कर रखी।  तुम जानते हो मैं कॉलेज के समय से ही सुरुचि से कितना प्यार करता हूं, तुम्हे शायद न पता हो मैं ये भी जानता था की तुम भी उसे चाहते हो।  राजीव हमारी शादी के कुछ ही महीनों बाद हमारे बीच चीज़ें बदलने लगी, जो प्यार था वो दूरियों में तब्दील होने लगा होने लगा।  मैंने बहुत कोशिश की , सब कुछ संभालने की पर ज़्यादा कुछ हो न सका।  इसी बीच मेरी मुलाक़ात सिमोन से हुई, वो हमारे ही ऑफिस के अमेरिका वाले ऑफिस में काम करती है, आगे तुम समझ ही गए होंगे।  हम दोनों मिल कर अब अमेरिका में कुछ नया शुरू करेंगे, और मैंने तय कर  लिया है की मैं अब कभी वापस नहीं लौटूंगा।  इसके बाद कभी तुमसे बात भी नहीं होगी, मैं ये सब सुरुचि को सीधा नहीं बताना चाहता था, इसलिए तुम्हे ये खत लिख कर जा रहा हूं, फ़ोन पर ये सब शायद बोल  नहीं पाता, तुम्हे मेरा ये आखरी काम करना पड़ेगा, सुरुचि से मैं माफ़ी मांगने के भी लायक नहीं हूं।
पर अगर हो सके तो, तुम मुझे माफ़ कर देना।

तुम्हारा दोस्त
उत्पल

मैं उस खत को हाथों में लिए कुछ देर तक दीवार ही तांकता रह गया, उत्पल की मौत के सदमे से धीरे धीरे उबरा ही था की अब ये खत ।  वहाँ सुरुचि का रो रो के बुरा हाल है और अब मैं उसे से सब ...  ये सब कैसे , सब ठीक तो लग रहा था।
पर उसे ये जानना ज़रूरी है की उत्पल उसके आँसुओं के लायक नहीं था,  उसे ये जानना बहुत ज़रूरी है,  उसे बताना ही पड़ेगा।
मैंने तुरंत अपनी कार निकाली और उस खत को उसी लिफ़ाफ़े में वापस डाल कर सुरुचि के घर की ओर निकल पड़ा।
अब मेरा सदमा हल्के हल्के गुस्से में बदल रहा था, उसे ये सब करना ही था तो फिर सुरुचि को अपनी ज़िन्दगी में लाया ही क्यों ?
मैंने खुद अपना प्यार खुद में मर जाने दिया, और उसने ये किया ?

गाड़ी नदी पर बने उस पुल पर से गुज़र रही थी और ये सब बातें ज़हन में चल रहीं थी, मन इतना परेशान हुआ की मैंने गाड़ी पुल के एक ओर लगा दी और बाहर निकल कर नीचे उस बहती नदी को देखने लगा।

उत्पल को ऐसा नहीं करना चाहिए था, ये बाद मैं अपने ज़हन में हज़ार दफ़े दोहरा चूका हुंगा।
सुरुचि आज क्या क्या याद कर रही होगी उसके बारे में और उसने ...
उसे ये सब पता चलेगा तो टूट जाएगी वो , जिस याद के सहारे वो शायद अपनी सारी  ज़िन्दगी गुज़ारने  की सोच रही है, वो याद शायद नफ़रत में बदल जाए ।
जाने उसकी क्या हालत होगी जब वो ये ख़त  पढ़ेगी ?  मैं क्या कह कर उसे ये खत दूंगा ? शायद ये सदमा उसकी मौत के सदमे से भी बड़ा होगा।

ये सब मैं क्या सोच रहा हूं, ये मुझे क्या हो रहा है, सुरुचि के प्यार के साथ ये अन्याय होगा।
उत्पल ने जो किया गलत किया पर उसका वजूद जो सुरुचि के साथ ज़िंदा है , मैं उसे मार नहीं सकता।
वो जैसा उसे सोचती थी, उसकी याद वैसी ही ज़िंदा रहना ज़रूरी है।
मैं ये कर नहीं सकता।

मैं कार से वो खत ले आया, आखरी बार सिर्फ़ वो पहली लाइन पढ़ी जो उसने लिखी थी

"राजीव , मेरे दोस्त , मेरे भाई.. "

फ़िर आसमान की ओर देखा और हल्के से फुसफुसाया ,

"उत्पल , मेरे दोस्त मेरे भाई "
फ़िर मैंने उस ख़त के छोटे छोटे टुकड़े किये और उन्हें नीचे पानी में फेंक दिया।
एक छोटा सा टुकड़ा मेरे चेहरे से आ लगा, मानो जैसे पूछ रहा हो की ये मैं क्या कर रहा हूँ, मैंने उसे चेहरे से अलग किया और बहा दिया।

उत्पल ने जो किया उसे शायद उसकी उसे बहुत बड़ी सज़ा मिल चुकी थी, मैं उसे फ़िर से एक बार मारना नहीं चाहता था।

उत्पल तुम जैसे थे वैसे ही रहोगे हमेशा।
मैं कार की और वापस लौट आया।

पता नहीं दोस्ती थी या प्यार था , शायद प्यार ही था।



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Friday, April 24, 2015

हमने मारा उसे....

कल एक किसान ने आत्महत्या कर ली , या यूं कहिए फिर आत्महत्या कर ली।  हमे अब ऐसी खबरों की आदत हो गयी है , रोज़ टीवी, पर, अख़बारों में देखते हैं पढ़ते हैं, नया क्या है ? कुछ भी तो नहीं । पर इस बार कुछ अलग हुआ, आपके हमारे सभी के सामने हुआ, वो हम सब के सामने लटक कर मर गया, जी हाँ हम सब, जो टीवी पर थे, जो अखबार पढ़ रहे थे, जो सोशल मीडिया पर थे। सिर्फ वो रैली की भीड़ नहीं थी, हम सब थे, मूक बधिर बने हुए हम सब।

कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहें है की, वो किसान नहीं था, उसने अच्छे कपड़े पहन रखे थे, उसका पगड़ी बाँधने का बिज़नेस था, उसके पास एक गाडी थी, यहाँ तक की उसकी एक वेबसाइट भी थी, वो किसान नहीं था। सही तो है, किसान तो वो होता है, जिसने मैले फटे मिट्टी से सने कपड़े पहन रखें हो, एक पुरानी सी पगडी हो और पैर में रबर के काले फटे हुए जूते हो, तब ही वो किसान माना जाएगा।  भारत में किसान को कोई  हक़ नहीं है की वो अच्छे कपडे पहने, गाडी रखे या कुछ और करे, ये सब चीज़ें हमारे आपके लिए है किसान पर ये सब नहीं जचता। हमने बचपन में भी कहानीयों में यही तो पढ़ा है "एक गरीब किसान" "एक बेचारा किसान" वगेरह वगेरह।  हमने अपने ज़हन में किसान की एक छवि बनी बना रखी है, जो बदलती नहीं , या शायद हम बदलना ही नहीं चाहते।

यहाँ कोई बॉलीवुड हस्ती, कोई नेता अपना फार्म हाउस बना कर खुद को किसान तो बता सकता है पर अगर कोई किसान उनकी तरह ज़रा सा भी कुछ कर दे तो वो किसान नहीं ?? कैसा न्याय है ये ?

गजेन्द्र ने अच्छे कपड़े पहन रखे थे, इसलिए उस पर उँगलियाँ उठ रही है, इस देश में किसान गरीब ही दिखे तो अच्छा है ,कम से कम किसान तो कहा जाएगा,वरना ये नाम भी हम आप उससे छीन लेंगे, जैसा गजेन्द्र से छीन रहें है।

कल के हादसे पर कुछ लोग तो यहाँ तक आंकलन कर रहें है की गजेन्द्र सिर्फ ड्रामा कर रहा था, वो आत्महत्या नहीं करना चाह रहा था।  उसकी मौत सिर्फ एक हादसा थी ।  कैसी संवेदनहीनता है ये ? ये क्या हो गया है हम लोगों को ?  एक किसान अपनी जान से गया है और  हम उसे मरने के बाद भी न जाने कितनी बार मार रहें हैं।  मौत, मौत होती है , मौत दुखद होती है, मौत में पीड़ा होती है फ़िर वो चाहे किसी की भी हो।  जंग में भी अगर दुश्मन मारा जाए तो जीत का जश्न मनाया जाता है, दुश्मन की मौत का नहीं, और गजेन्द्र कोई दुश्मन तो नहीं था, एक किसान था इस देश का ।

आपने कभी गौर किया है, हम लोग अक्सर जब मॉल के सुपर बाज़ार में जातें हैं, किराने का सामान और सब्जियाँ लेने। ऐसी की ठंडी हवा में उस चमचमाती  रौशनी में दाल, चावल और सब्ज़ियाँ बहुत सुन्दर दिखती हैं, ये वही चीज़ें हैं जो किसान भरी धूप में कड़ी मेहनत कर अपने खेतों में उगाता है। ट्यूबलाइट की उस सफ़ेद रौशनी में सब्जियाँ तो खूब चमकतीं हैं  पर उस किसान का पसीना कहीं दिखाई नहीं देता और अगर गलती से गाँव का कोई किसान उस मॉल में आ जाए तो हम लोगों को ऐसा लगता है की कोई गाँव का गवार आ गया इतने बड़े मॉल में।

खैर जाने दीजिये , ये बताइये आईपीएल में क्या चल रहा है, किसान और फ़ौज़ी तो रोज़ मरते रहते हैं। 

Wednesday, December 17, 2014

तुमने गोली क्यों चलाई ......

तुमने गोली क्यों चलाई 
क्या तुम्हें एक लम्हा भी, माँ याद नहीं आई 
वो माँ जो तुम्हारे ज़रा सी देर से घर लौटने पर, घबरा जाती थी
तुमने उस माँ के बच्चे को घर आज लौटने नहीं दिया
तुम्हारी भी तो ऐसी ही माँ थी ना 

फ़िर तुमने गोली क्यों चलाई ……

याद है जब छिले घुटने ले कर तुम लौटते थे 
खून का वो छोटा सा धब्बा देख कर वो  सहम जाती थी  
तुमने खून से सने बच्चे उस माँ के, आज घर भेजें हैं 
तुम्हारी भी तो ऐसी ही माँ थी ना 

फ़िर तुमने गोली क्यों चलाई …… 

रोते थे तुम जब किसी बात पर 
वो खुद रो पड़ती थी, आँसू तुम्हारे पोंछते पोंछते 
चीखते चिल्लाते उस माँ के बच्चे को आज तुमने मार डाला 
तुम्हारी भी तो ऐसी ही माँ थी ना 

फ़िर तुमने गोली क्यों चलाई ……
फ़िर तुमने गोली क्यों चलाई ……

Tuesday, November 11, 2014

तीन कप . . . .

शहर बिलकुल बदल चुका था पहले जैसा कुछ नहीं रहा था,  मैं ना जाने कितने सालों बाद लौटी थी। अब घुटने कमज़ोर हो चुके थे और बाल उम्र बयां करने लगे थे। बहुत कुछ पाया, बहुत कुछ खोया था इस शहर में, और आज.... ?? आज ज़िंदगी फ़िर मुझे यहाँ फ़िर खींच कर ले लायी थी। 

एक दौर था जब इस शहर की ख़ाक छानी थी "उसके" साथ, शहर का कोई रेस्टोरेंट, कोई रास्ता ऐसा नहीं था जहां हम साथ न गए हो। हम दोनो एक दूसरे से कितने अलग थे, मुझे उससे जुडी हर तारीख याद रहती, हम पहली बार कब मिले, उसने पहली बार मेरा हाथ कब पकड़ा और न जाने क्या  क्या और एक वो था मेरा जन्मदिन तक भूल जाता, कभी मिलने के लिए खुद बुलाता और खुद ही भूल जाता,  पर बहुत प्यार करता था मुझसे। आज भी वो मुझे याद तो आता था पर कभी कभी.... हाँ कभी कभी। आज इस शहर में वापस लौट कर जैसे किताब का वो पन्ना मेरे सामने आ गया था, वो किताब जिसमें हमारी कहानी लिखी थी, हम दोनों की.....। मैंने अपनी ज़िंदगी के दो बड़े फैसले इसी शहर में लिए थे, एक उसे चुनने का और दूसरा उसको छोड़ कर उससे दूर चले जाने का।  एक कहानी अधूरी छोड़ कर चली गयी थी मैं इस शहर में ....

अरे हाँ एक रेस्तरां भी तो था, जहां हर इतवार हम दस बजे मिलते थे, हर इतवार.... मैं और वो ....
 
मैं कॉफ़ी मंगाती और वो चाय और फ़िर एक खाली कप मंगा कर हम आधी चाय और आधी कॉफ़ी मिलाते, ना मेरे कप में पूरी कॉफ़ी होती ना उसके कप में पूरी चाय, रेस्तरां वाले भी सोचते ये दोनों न जाने क्या करते रहतें हैं।   ये सिलसिला तब तक चला जब तक हम दोनों साथ थे, मिली हुई कॉफ़ी और चाय का वो स्वाद आज फिर जुबां को छू गया, अजीब था ना कॉफ़ी और चाय मिला कर पीना।  हम भी तो ऐसे ही थे चाय और कॉफ़ी की तरह बिलकुल एक दुसरे से अलग  पर फिर भी घुल गए थे आपस में। 
 
हम दोनों में वो ज्यादा कमज़ोर था, उस पर ना जाने क्या बीती होगी, मैं जिस हाल में उसे अकेला छोड़ कर चली आई थी, जाने फिर क्या हुआ होगा। कभी उससे न बात हुई ना मुलाक़ात, शायद हमारी कहानी वहीँ तक लिखी गयी थी.... वहीं तक....।  मेरे लिए बहुत मुश्किल था उतना ही मुश्किल जितना उस कप में मिली हुई चाय और कॉफ़ी को अलग करना। वो रेस्टोरेंट का चाय कॉफ़ी वाला सिलसिला और ना जाने ऐसे कितने सिलसिले थम गए...

शहर, मैं और हालात सब बदल चुके थे, सोचा क्यों न उस रेस्टोरेंट को जाकर भी देखा जाए की वो कितना बदल चूका है , या है भी की नहीं ?

चौराहे का नाम मुझे याद करने में ज़रा सी देर लगी पर रिक्शे वाला तुरंत समझ गया,

"हाँ मेमसाब अब भी है, पर अब इतना चलता नहीं बहुत सारे नए रेस्टोरेंट जो खुल गए हैं आसपास"

बीस मिनिट लगे, उसने ठीक मुझे उस रेस्टारेंट के सामने उतार दिया।  मैंने चार कदम पीछे हट कर बोर्ड की तरफ देखा, नाम वही था, पर बोर्ड नया था। कुछ जगहें भी हम जैसी ही होतीं हैं , नाम वही रहता है पर कितनी बदल जातीं हैं....  है ना.... ? 

काँच के दरवाज़े को धकेलते ही ऐसी की ठंडी सी हवा टकरा गयी, रेस्टोरेंट में वो पुरानी लकड़ी की कुर्सियाँ अब भी थीं, टेबल कुछ अलग से लग रहे थे। मैं उसी जगह बैठना चाहती थी जहां हम बैठा करते थे, पर वहाँ पहले से कोई बैठा हुआ था। 

मैं एक कोने में पड़े टेबल पर जा कर बैठ गयी , वो नज़ारा ठीक मेरे सामने था , मुझे हम दोनों ठीक उसी टेबल पर बैठे हुए नज़र आ रहे थे।  चाय के तीन कप टेबल पर रखे हुए , एक दुसरे से बातें करते हुए।  कितने अच्छे लगते थे हम एक दुसरे के साथ।  काश मैं उसी टेबल पर बैठ पाती , पर कोई कम्बखत वहाँ बैठा हुआ था।  जाने क्या ख़याल आया मैं अपनी जगह से उठ कर उस शख्स के बगल में जा कर खड़ी हो गयी।

" सुनिये,  मैं कुछ देर के लिए इधर बैठ सकती हूं  ? "

उसे शायद सुनाई नहीं दिया 

"सुनिये.... !! सुनिये मैं कुछ देर  …… ??  "

उसने हल्की सी गर्दन घुमाई और मेरी और देखा 

मेरे क़दमों में जैसे जान ही नहीं रही, मैं दो कदम पीछे हटी अपने पीछे पड़ी कुर्सी को दोनों हाथों से ज़ोर से जकड लिया,

"तुम  …… "


वही आँखें.... वही मोटी सी समोसे सी नाक …
ये वही था, सालों पहले आखरी बार जाने कहाँ मिले थे, और आज.....  आज मुझे ठीक इस जगह मिला …इस जगह  .... ??

बाल सफ़ेद हो चुके थे, चश्मा लग चूका था पर कपड़े पहनने का ढंग अब भी वही था , वही चेक्स वाली नीली शर्ट, वही सैंडल।

वो मेरी और देखे जा रहा था, जैसे मुझे पहचानने की कोशिश रहा हो। 

 "कैसे हो तुम ? "
  
"जी माफ़ कीजिये, मैंने आपको पहचाना नहीं "
  
"मैं....  मैं सरोज  ...."

"माफ़ कीजियेगा,  सरोज ?? सरोज कौन ??"

"शायद कभी मुलाक़ात हुई होगी, माफ़ कीजिएगा याद नहीं मुझे "

"अरे तुम मुझे कैसे भूल सकते हो, हम.... हम यहीं तो मिला करते थे...  अरे मैं हूँ मैं सरोज "


ये कहते कहते मैं उसके बगल वाली कुर्सी पर बैठ गयी, बहुत कोशिशें की उसे याद दिलाने की, सारा रेस्टोरेंट हमे देख रहा था। वो ये जान बूझ कर कर रहा था, मुझे कभी माफ़ नहीं किया होगा उसने, पर जिस तरह से वो ये कह रहा था, ऐसा लग रहा था जैसे उसे सच में कुछ याद नहीं हैं । मैं उसे याद दिलाने की कोशिश करती रही पर उसे कुछ याद नहीं आ रहा था, वो मुझसे बार बार माफ़ी मांग रहा था ।

  
"तुम.... तुम ये जान बूझकर कर रहे हो ना ? मैं जानती हूँ , माफ़ कर दो मुझे "

मेरे आँखों में अब पानी भर आया था, मैं गिड़गिड़ाती रही , रोती रही , उस पर कोई असर नहीं हो रहा था

फ़िर उसने मेरी और देख कर कहा, देखिये आपको कोई गलतफ़हमी  हो रही है , आप इस तरह रोइए नहीं

"मुझे मत पहचानो , पर कम से कम मुझे ये कह दो की तुमने मुझे माफ़ किया "

मैंने रोते हुए अपना सर टेबल पर रख दिया 

"क्या किया है आपने ... ? मैं कौन होता हूँ आपको माफ़ करने वाला " 

तभी रेस्टोरेंट का दरवाज़ा खुला, और करीब ३२ -३३ साल का नौजवान हमारे पास आ कर खड़ा हो गया, बिलकुल उसी की तरह दिखता था 

"चलिए पापा, घर चलतें हैं "
  
फिर वो मेरी आँखों में पानी देख पर बोला,

"माफ़ कीजियेगा आँटी, मैं जानता हूँ शायद आप कोई इनके जान पहचान के रहे होंगे, पर अब इन्हें कुछ याद नहीं हैं "

"इन्हें अल्ज़ाइमर है, मैं इनकी तरफ से आप से माफ़ी मांगता हूँ"

 "चलिए पापा "

इससे पहले के मैं उसे कुछ कह पाती वो उसे वहाँ से उठा कर ले गया, उसने जाते जाते मेरी ओर देखा और हल्का सा मुस्कुरा दिया, जैसे कोई किसी अजनबी की और देख कर मुस्कराता है

अल्ज़ाइमर .... ?? उसकी वो भूलने की आदत  .... !!

मैं उसकी दोषी थी और आज जब मुझे मौका मिला था उससे माफ़ी मांगने का तो उसे कुछ याद नहीं, ना मैं, ना मैंने उसके साथ जो किया वो ....

मैं अंदर से हिल गयी थी, कुछ सूझ नहीं रहा था, आँखें बही जा रहीं थी, आज हम दोनों में, मैं कमज़ोर हो चुकी थी , वो मुझे वापस मिला भी और नहीं भी ...

आँखें पोंछते पोछतें टेबल पर नज़र पड़ी ,

तीन कप रखे हुए थे, एक में आधी चाय थी, एक में आधी कॉफी। 
एक कप खाली था जिसके तले में थोड़ी सी मिली हुई चाय कॉफ़ी पड़ी हुई थी 

"क्या ? वो आज भी … "

"जाने कितने सालों से , जाने कब से  ? " 

और मैं सोचती थी , मेरे जाने के कुछ दिनों बाद सब ठीक हो जाएगा। 

ये मुझसे क्या हो गया ? ये मैंने क्या कर दिया ?

मैंने खुद को उससे बहुत दूर कर दिया था , पर उसने आज तक...  आज तक ...

मैं अब सुन्न पड़ चुकी थी , मुझे आसपास का ना कुछ दिखाई न सुनाई दे रहा था 

दिख रहे थे तो वो सिर्फ टेबल पर पड़े हुए वो तीन कप। 

तभी वेटर आया

"  Ma'am  ये चाय कॉफ़ी आप की है  ? "

"जी ?" 

" Ma'am  ये चाय कॉफ़ी आप की है  ? "

मैंने अपने आँसू पोंछे 

"हाँ मेरी है, मेरी ही तो है "

मैंने आधी चाय उस आधी कॉफ़ी में डाल दी, स्वाद अब भी वैसा ही था। 

सामने दीवार पर कैलेंडर टंगा था , आज इतवार था। 




Pic From :http://qz.com/215666/how-climate-change-and-a-deadly-fungus-threaten-our-coffee-supply/

Wednesday, August 13, 2014

झाँसी की रानी ....

नुक्कड़ के मोड़ पर एक पुराना बरगद का पेड़ था, उसके चारों और सीमेंट का गोल चबूतरा था, हम चार दोस्त हर शाम वहीं बैठते। आपस में हँसी मज़ाक, हर आने जाने वाले का मज़ाक उड़ाना और न जाने क्या क्या। तब मोबाइल, वव्हाट्सएप्प नहीं होता था, तब सिर्फ़ बरगद के पेड़ होते थे।  खैर जाने दीजिये।

रोज़ ऐसी बैठकों के सिलसिले चलते रहते। कभी किसी बच्चे को डरा दिया कभी किसी बुज़ुर्ग को कह दिया की उसके थैले में से कुछ गिर गया है, रोज़ कुछ न कुछ ढूंढ ही लेते थे हम।  फिर एक दिन की बात है, हम यूं ही बैठे हुए थे की एक स्कूटर चबूतरे के बगल से गुज़रा, एक महिला करीब ३० -३२ साल की रही होगी वो स्कूटर चला रही थी, फ़िर दिखा की दुप्पटे से उसने एक बच्चे को कमर से बांध रखा है, नौ दस साल का रहा होगा।  जैसे ही वो चबूतरे के पास आयी, मेरे मुंह से निकल गया "झाँसी की रानी " !!

मेरे तीनों दोस्त हँस पड़े, स्कूटर थोड़ी दूर ही गया था, वो स्कूटर चलाते चलाते पीछे मुड़ी और मुस्कुरा कर आगे बढ़ गयी।  फ़िर हम सब काफ़ी देर तक हँसे। दोस्त यह कह कह कर हँस रहे थे की "सच में यार झांसी की रानी ही लग रही थी, ऐसी भी कोई बच्चे को बांधता है क्या ?

झाँसी की रानी, बिलकुल वैसे ही दिखती होगी, बस घोड़े की जगह स्कूटर था।  मज़ा तो हम सभी को बहुत आया पर उसका वो पीछे मुड़ कर मुस्कुराना थोड़ा चुभ सा गया। अगले दिन वो फ़िर वहाँ से गुज़री , इस बार मैं ज़ोर से चिल्लाया "झाँसी की रानी" !! दोस्त लोग फ़िर ज़ोर से हँसे। वो पीछे मुड़ कर फ़िर मुस्कुराई।

सिलसिला कुछ दिनों तक इसी तरह चलता रहा, वो कमर में उस बच्चे को बाँध कर लक्ष्मीबाई की तरह रोज़ गुज़रती, हम रोज़ ज़ोर से चिल्लाते और वो जाते जाते पीछे मुड कर रोज़ मुस्कुरा जाती।  वो दोनों इसी तरह रोज़ उस चबूतरे के पास से गुज़रते, पता नहीं कहाँ जाते थे पर रोज़ गुज़रते थे।  अब वो रोज़ का मज़ाक नहीं रहा था। मानो मेरा उसको "झाँसी की रानी" कहना और उसका मुस्कुरा देना जैसे सलाम नमस्ते वाली बात हो। पर फ़िर भी हमें बड़ा मज़ा आता था "झाँसी की रानी"

झाँसी की रानी की मुस्कान बहुत सुन्दर थी , वो खुद भी बहुत सुन्दर थी,  पर कभी उस बच्चे की शक्ल नहीं नज़र आई , वो दोनों हाथों से अपनी माँ को ज़ोर से जकड़े रहता , और वो दुपट्टा उसे झाँसी की रानी की पीठ से कस के बांधे रखता। रोज़ उसे चिढ़ाने के सिलसिले के साथ साथ ये एहसास होने लगा की कुछ अजीब सा है कुछ अलग सा है ये सब। सोचा पता करना पड़ेगा , कहानी क्या है इस झाँसी की रानी की ?

फ़िर उस दिन वो फ़िर गुज़री , "झाँसी की रानी" !! हम फ़िर चिल्लाये !! वो हर बार की तरह मुस्कुरा कर चल गयी।  इस बार मैं भी तैयार था , तुरंत अपनी साइकिल निकाली और उसका पीछा करने लगा , वो काफी आगे निकल गयी थी फ़िर भी मेरी नज़रों के दायरे में थी। फिर देखा की वह दायीं तरफ बने एक लोहे के गेट के अंदर मुड़ गयी , मैं फ़टाफ़ट  पैडल  मारते हुए उस गेट तक पहुँचा और साइकिल दीवार से सटा कर हांफता हुआ लोहे के गेट से झाँकने लगा।

उसने जैसे तैसे उस इमारत के दरवाज़े के सामने स्कूटर रोका , पैर नीचे पहुँचते जो नहीं थे।  फिर उसने साइड स्टैंड बड़ी मुश्किल से लगाया और पीठ पर बंधे उस बच्चे के साथ ही नीचे उतरी।  चार कदम चल कर सीढ़ियों तक पहुँची और फ़िर पलट कर गेट की तरफ मुँह कर कर धीरे धीरे बैठने लगी, अपने दोनों हाथ पीछे ले जा कर फ़िर उसने देखा की बच्चा ठीक से सीढ़ीओं पर बैठ गया है , और फ़िर उसने वो दुप्पटे की गाँठ खोल दी।
मैं अब भी गेट की उन लोहे की सलाखों के पीछे से उसे देख रहा था।

फ़िर मुझे वो बच्चा नज़र आया, नौ या दस साल का ही था, चेहरा बिलकुल अजीब सा था, होठों से लार टपक रही थी, उसके दोनों हाथ अलग अलग दिशा में हिल रहे थे, वो कुछ अजीब सी आवाज़ें निकाल रहा था, अपनी माँ को दोनों हाथों से जकड़ने की कोशिश कर रहा था , और वो उसे पकड़ पर उसे अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश कर रही थी। करीब पंद्रह मिनट तक ये जद्दो जहद चलती रही, कभी वो दुप्पटे को  संभालती कभी उसे, कभी रुमाल से उसका मुँह पोंछती कभी उसके साथ नीचे बैठ कर उसे मनाने की कोशिश करती। वो बहुत ज़ोर से अजीब सी आवाज़ें कर रहा था।   फ़िर किसी तरह वो उसे अंदर ले गयी।

ऐसा लगा जैसे किसी ने अंदर से मुझे जंझोर दिया हो , मुझे सब समझ में आ गया था, गेट से दो कदम पीछे हटा और ऊपर लगे बोर्ड पर नज़र गयी "समर्थ स्कूल ऑफ़ मेंटली चैलेंज्ड" , आँखें पानी से भरी हुईं थी फिर भी बोर्ड पर लिखा साफ़ साफ़ नज़र आ रहा था। मेरे पैर अब जवाब दे रहे थे, मैं गेट से हट कर दीवार पर पीठ सटा कर आसमान तांकने लगा। सीने में एक अजीब सी घुटन होने लगी थी।

ये मुझसे क्या हो गया, ये मैंने क्या कर दिया, ये रोज़ इस तरह यहाँ अकेली आती है, अकेली जूझती है और मैं उसका मज़ाक उड़ाता रहा। और उसने क्या किया, बस मुझे देख कर मुस्कुराती रही, सिर्फ मुस्कुराती रही। किस मुश्किल से उसने उसे स्कूटर से नीचे उतारा था , ना जाने कैसे बांधा होगा खुद से , ना जाने वो ये रोज़ कैसे कर लेती है।  कैसे हैं ये लोग, कहाँ से लाते हैं ऐसा दिल, कहाँ से लाते हैं ऐसी हिम्मत, मैंने दोनों हथेलियों से आँखें पोंछी , और फिर उन लोहे की सलाखों से झाँकने लगा।  वो सीढ़ियों पर बैठी थी कोई किताब हाथ में लिए , उसके वापस आने का इंतज़ार कर रही थी शायद।
मन किया की उससे जा कर माफ़ी मांग लूं , पर हिम्मत नहीं हुई।

कदम वापस लिए , दिवार से सटी साइकिल को लिया और वापस उस बरगद के पेड़ की तरफ जाने लगा। उसका मुस्कुराता वो सुन्दर सा चेहरा अब भी ज़हन में आ रहा था।

सच में झाँसी की रानी ही तो थी , झाँसी की रानी।




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