Pages

Wednesday, December 17, 2014

तुमने गोली क्यों चलाई ......

तुमने गोली क्यों चलाई 
क्या तुम्हें एक लम्हा भी, माँ याद नहीं आई 
वो माँ जो तुम्हारे ज़रा सी देर से घर लौटने पर, घबरा जाती थी
तुमने उस माँ के बच्चे को घर आज लौटने नहीं दिया
तुम्हारी भी तो ऐसी ही माँ थी ना 

फ़िर तुमने गोली क्यों चलाई ……

याद है जब छिले घुटने ले कर तुम लौटते थे 
खून का वो छोटा सा धब्बा देख कर वो  सहम जाती थी  
तुमने खून से सने बच्चे उस माँ के, आज घर भेजें हैं 
तुम्हारी भी तो ऐसी ही माँ थी ना 

फ़िर तुमने गोली क्यों चलाई …… 

रोते थे तुम जब किसी बात पर 
वो खुद रो पड़ती थी, आँसू तुम्हारे पोंछते पोंछते 
चीखते चिल्लाते उस माँ के बच्चे को आज तुमने मार डाला 
तुम्हारी भी तो ऐसी ही माँ थी ना 

फ़िर तुमने गोली क्यों चलाई ……
फ़िर तुमने गोली क्यों चलाई ……

Tuesday, November 11, 2014

तीन कप . . . .

शहर बिलकुल बदल चुका था पहले जैसा कुछ नहीं रहा था,  मैं ना जाने कितने सालों बाद लौटी थी। अब घुटने कमज़ोर हो चुके थे और बाल उम्र बयां करने लगे थे। बहुत कुछ पाया, बहुत कुछ खोया था इस शहर में, और आज.... ?? आज ज़िंदगी फ़िर मुझे यहाँ फ़िर खींच कर ले लायी थी। 

एक दौर था जब इस शहर की ख़ाक छानी थी "उसके" साथ, शहर का कोई रेस्टोरेंट, कोई रास्ता ऐसा नहीं था जहां हम साथ न गए हो। हम दोनो एक दूसरे से कितने अलग थे, मुझे उससे जुडी हर तारीख याद रहती, हम पहली बार कब मिले, उसने पहली बार मेरा हाथ कब पकड़ा और न जाने क्या  क्या और एक वो था मेरा जन्मदिन तक भूल जाता, कभी मिलने के लिए खुद बुलाता और खुद ही भूल जाता,  पर बहुत प्यार करता था मुझसे। आज भी वो मुझे याद तो आता था पर कभी कभी.... हाँ कभी कभी। आज इस शहर में वापस लौट कर जैसे किताब का वो पन्ना मेरे सामने आ गया था, वो किताब जिसमें हमारी कहानी लिखी थी, हम दोनों की.....। मैंने अपनी ज़िंदगी के दो बड़े फैसले इसी शहर में लिए थे, एक उसे चुनने का और दूसरा उसको छोड़ कर उससे दूर चले जाने का।  एक कहानी अधूरी छोड़ कर चली गयी थी मैं इस शहर में ....

अरे हाँ एक रेस्तरां भी तो था, जहां हर इतवार हम दस बजे मिलते थे, हर इतवार.... मैं और वो ....
 
मैं कॉफ़ी मंगाती और वो चाय और फ़िर एक खाली कप मंगा कर हम आधी चाय और आधी कॉफ़ी मिलाते, ना मेरे कप में पूरी कॉफ़ी होती ना उसके कप में पूरी चाय, रेस्तरां वाले भी सोचते ये दोनों न जाने क्या करते रहतें हैं।   ये सिलसिला तब तक चला जब तक हम दोनों साथ थे, मिली हुई कॉफ़ी और चाय का वो स्वाद आज फिर जुबां को छू गया, अजीब था ना कॉफ़ी और चाय मिला कर पीना।  हम भी तो ऐसे ही थे चाय और कॉफ़ी की तरह बिलकुल एक दुसरे से अलग  पर फिर भी घुल गए थे आपस में। 
 
हम दोनों में वो ज्यादा कमज़ोर था, उस पर ना जाने क्या बीती होगी, मैं जिस हाल में उसे अकेला छोड़ कर चली आई थी, जाने फिर क्या हुआ होगा। कभी उससे न बात हुई ना मुलाक़ात, शायद हमारी कहानी वहीँ तक लिखी गयी थी.... वहीं तक....।  मेरे लिए बहुत मुश्किल था उतना ही मुश्किल जितना उस कप में मिली हुई चाय और कॉफ़ी को अलग करना। वो रेस्टोरेंट का चाय कॉफ़ी वाला सिलसिला और ना जाने ऐसे कितने सिलसिले थम गए...

शहर, मैं और हालात सब बदल चुके थे, सोचा क्यों न उस रेस्टोरेंट को जाकर भी देखा जाए की वो कितना बदल चूका है , या है भी की नहीं ?

चौराहे का नाम मुझे याद करने में ज़रा सी देर लगी पर रिक्शे वाला तुरंत समझ गया,

"हाँ मेमसाब अब भी है, पर अब इतना चलता नहीं बहुत सारे नए रेस्टोरेंट जो खुल गए हैं आसपास"

बीस मिनिट लगे, उसने ठीक मुझे उस रेस्टारेंट के सामने उतार दिया।  मैंने चार कदम पीछे हट कर बोर्ड की तरफ देखा, नाम वही था, पर बोर्ड नया था। कुछ जगहें भी हम जैसी ही होतीं हैं , नाम वही रहता है पर कितनी बदल जातीं हैं....  है ना.... ? 

काँच के दरवाज़े को धकेलते ही ऐसी की ठंडी सी हवा टकरा गयी, रेस्टोरेंट में वो पुरानी लकड़ी की कुर्सियाँ अब भी थीं, टेबल कुछ अलग से लग रहे थे। मैं उसी जगह बैठना चाहती थी जहां हम बैठा करते थे, पर वहाँ पहले से कोई बैठा हुआ था। 

मैं एक कोने में पड़े टेबल पर जा कर बैठ गयी , वो नज़ारा ठीक मेरे सामने था , मुझे हम दोनों ठीक उसी टेबल पर बैठे हुए नज़र आ रहे थे।  चाय के तीन कप टेबल पर रखे हुए , एक दुसरे से बातें करते हुए।  कितने अच्छे लगते थे हम एक दुसरे के साथ।  काश मैं उसी टेबल पर बैठ पाती , पर कोई कम्बखत वहाँ बैठा हुआ था।  जाने क्या ख़याल आया मैं अपनी जगह से उठ कर उस शख्स के बगल में जा कर खड़ी हो गयी।

" सुनिये,  मैं कुछ देर के लिए इधर बैठ सकती हूं  ? "

उसे शायद सुनाई नहीं दिया 

"सुनिये.... !! सुनिये मैं कुछ देर  …… ??  "

उसने हल्की सी गर्दन घुमाई और मेरी और देखा 

मेरे क़दमों में जैसे जान ही नहीं रही, मैं दो कदम पीछे हटी अपने पीछे पड़ी कुर्सी को दोनों हाथों से ज़ोर से जकड लिया,

"तुम  …… "


वही आँखें.... वही मोटी सी समोसे सी नाक …
ये वही था, सालों पहले आखरी बार जाने कहाँ मिले थे, और आज.....  आज मुझे ठीक इस जगह मिला …इस जगह  .... ??

बाल सफ़ेद हो चुके थे, चश्मा लग चूका था पर कपड़े पहनने का ढंग अब भी वही था , वही चेक्स वाली नीली शर्ट, वही सैंडल।

वो मेरी और देखे जा रहा था, जैसे मुझे पहचानने की कोशिश रहा हो। 

 "कैसे हो तुम ? "
  
"जी माफ़ कीजिये, मैंने आपको पहचाना नहीं "
  
"मैं....  मैं सरोज  ...."

"माफ़ कीजियेगा,  सरोज ?? सरोज कौन ??"

"शायद कभी मुलाक़ात हुई होगी, माफ़ कीजिएगा याद नहीं मुझे "

"अरे तुम मुझे कैसे भूल सकते हो, हम.... हम यहीं तो मिला करते थे...  अरे मैं हूँ मैं सरोज "


ये कहते कहते मैं उसके बगल वाली कुर्सी पर बैठ गयी, बहुत कोशिशें की उसे याद दिलाने की, सारा रेस्टोरेंट हमे देख रहा था। वो ये जान बूझ कर कर रहा था, मुझे कभी माफ़ नहीं किया होगा उसने, पर जिस तरह से वो ये कह रहा था, ऐसा लग रहा था जैसे उसे सच में कुछ याद नहीं हैं । मैं उसे याद दिलाने की कोशिश करती रही पर उसे कुछ याद नहीं आ रहा था, वो मुझसे बार बार माफ़ी मांग रहा था ।

  
"तुम.... तुम ये जान बूझकर कर रहे हो ना ? मैं जानती हूँ , माफ़ कर दो मुझे "

मेरे आँखों में अब पानी भर आया था, मैं गिड़गिड़ाती रही , रोती रही , उस पर कोई असर नहीं हो रहा था

फ़िर उसने मेरी और देख कर कहा, देखिये आपको कोई गलतफ़हमी  हो रही है , आप इस तरह रोइए नहीं

"मुझे मत पहचानो , पर कम से कम मुझे ये कह दो की तुमने मुझे माफ़ किया "

मैंने रोते हुए अपना सर टेबल पर रख दिया 

"क्या किया है आपने ... ? मैं कौन होता हूँ आपको माफ़ करने वाला " 

तभी रेस्टोरेंट का दरवाज़ा खुला, और करीब ३२ -३३ साल का नौजवान हमारे पास आ कर खड़ा हो गया, बिलकुल उसी की तरह दिखता था 

"चलिए पापा, घर चलतें हैं "
  
फिर वो मेरी आँखों में पानी देख पर बोला,

"माफ़ कीजियेगा आँटी, मैं जानता हूँ शायद आप कोई इनके जान पहचान के रहे होंगे, पर अब इन्हें कुछ याद नहीं हैं "

"इन्हें अल्ज़ाइमर है, मैं इनकी तरफ से आप से माफ़ी मांगता हूँ"

 "चलिए पापा "

इससे पहले के मैं उसे कुछ कह पाती वो उसे वहाँ से उठा कर ले गया, उसने जाते जाते मेरी ओर देखा और हल्का सा मुस्कुरा दिया, जैसे कोई किसी अजनबी की और देख कर मुस्कराता है

अल्ज़ाइमर .... ?? उसकी वो भूलने की आदत  .... !!

मैं उसकी दोषी थी और आज जब मुझे मौका मिला था उससे माफ़ी मांगने का तो उसे कुछ याद नहीं, ना मैं, ना मैंने उसके साथ जो किया वो ....

मैं अंदर से हिल गयी थी, कुछ सूझ नहीं रहा था, आँखें बही जा रहीं थी, आज हम दोनों में, मैं कमज़ोर हो चुकी थी , वो मुझे वापस मिला भी और नहीं भी ...

आँखें पोंछते पोछतें टेबल पर नज़र पड़ी ,

तीन कप रखे हुए थे, एक में आधी चाय थी, एक में आधी कॉफी। 
एक कप खाली था जिसके तले में थोड़ी सी मिली हुई चाय कॉफ़ी पड़ी हुई थी 

"क्या ? वो आज भी … "

"जाने कितने सालों से , जाने कब से  ? " 

और मैं सोचती थी , मेरे जाने के कुछ दिनों बाद सब ठीक हो जाएगा। 

ये मुझसे क्या हो गया ? ये मैंने क्या कर दिया ?

मैंने खुद को उससे बहुत दूर कर दिया था , पर उसने आज तक...  आज तक ...

मैं अब सुन्न पड़ चुकी थी , मुझे आसपास का ना कुछ दिखाई न सुनाई दे रहा था 

दिख रहे थे तो वो सिर्फ टेबल पर पड़े हुए वो तीन कप। 

तभी वेटर आया

"  Ma'am  ये चाय कॉफ़ी आप की है  ? "

"जी ?" 

" Ma'am  ये चाय कॉफ़ी आप की है  ? "

मैंने अपने आँसू पोंछे 

"हाँ मेरी है, मेरी ही तो है "

मैंने आधी चाय उस आधी कॉफ़ी में डाल दी, स्वाद अब भी वैसा ही था। 

सामने दीवार पर कैलेंडर टंगा था , आज इतवार था। 




Pic From :http://qz.com/215666/how-climate-change-and-a-deadly-fungus-threaten-our-coffee-supply/

Wednesday, August 13, 2014

झाँसी की रानी ....

नुक्कड़ के मोड़ पर एक पुराना बरगद का पेड़ था, उसके चारों और सीमेंट का गोल चबूतरा था, हम चार दोस्त हर शाम वहीं बैठते। आपस में हँसी मज़ाक, हर आने जाने वाले का मज़ाक उड़ाना और न जाने क्या क्या। तब मोबाइल, वव्हाट्सएप्प नहीं होता था, तब सिर्फ़ बरगद के पेड़ होते थे।  खैर जाने दीजिये।

रोज़ ऐसी बैठकों के सिलसिले चलते रहते। कभी किसी बच्चे को डरा दिया कभी किसी बुज़ुर्ग को कह दिया की उसके थैले में से कुछ गिर गया है, रोज़ कुछ न कुछ ढूंढ ही लेते थे हम।  फिर एक दिन की बात है, हम यूं ही बैठे हुए थे की एक स्कूटर चबूतरे के बगल से गुज़रा, एक महिला करीब ३० -३२ साल की रही होगी वो स्कूटर चला रही थी, फ़िर दिखा की दुप्पटे से उसने एक बच्चे को कमर से बांध रखा है, नौ दस साल का रहा होगा।  जैसे ही वो चबूतरे के पास आयी, मेरे मुंह से निकल गया "झाँसी की रानी " !!

मेरे तीनों दोस्त हँस पड़े, स्कूटर थोड़ी दूर ही गया था, वो स्कूटर चलाते चलाते पीछे मुड़ी और मुस्कुरा कर आगे बढ़ गयी।  फ़िर हम सब काफ़ी देर तक हँसे। दोस्त यह कह कह कर हँस रहे थे की "सच में यार झांसी की रानी ही लग रही थी, ऐसी भी कोई बच्चे को बांधता है क्या ?

झाँसी की रानी, बिलकुल वैसे ही दिखती होगी, बस घोड़े की जगह स्कूटर था।  मज़ा तो हम सभी को बहुत आया पर उसका वो पीछे मुड़ कर मुस्कुराना थोड़ा चुभ सा गया। अगले दिन वो फ़िर वहाँ से गुज़री , इस बार मैं ज़ोर से चिल्लाया "झाँसी की रानी" !! दोस्त लोग फ़िर ज़ोर से हँसे। वो पीछे मुड़ कर फ़िर मुस्कुराई।

सिलसिला कुछ दिनों तक इसी तरह चलता रहा, वो कमर में उस बच्चे को बाँध कर लक्ष्मीबाई की तरह रोज़ गुज़रती, हम रोज़ ज़ोर से चिल्लाते और वो जाते जाते पीछे मुड कर रोज़ मुस्कुरा जाती।  वो दोनों इसी तरह रोज़ उस चबूतरे के पास से गुज़रते, पता नहीं कहाँ जाते थे पर रोज़ गुज़रते थे।  अब वो रोज़ का मज़ाक नहीं रहा था। मानो मेरा उसको "झाँसी की रानी" कहना और उसका मुस्कुरा देना जैसे सलाम नमस्ते वाली बात हो। पर फ़िर भी हमें बड़ा मज़ा आता था "झाँसी की रानी"

झाँसी की रानी की मुस्कान बहुत सुन्दर थी , वो खुद भी बहुत सुन्दर थी,  पर कभी उस बच्चे की शक्ल नहीं नज़र आई , वो दोनों हाथों से अपनी माँ को ज़ोर से जकड़े रहता , और वो दुपट्टा उसे झाँसी की रानी की पीठ से कस के बांधे रखता। रोज़ उसे चिढ़ाने के सिलसिले के साथ साथ ये एहसास होने लगा की कुछ अजीब सा है कुछ अलग सा है ये सब। सोचा पता करना पड़ेगा , कहानी क्या है इस झाँसी की रानी की ?

फ़िर उस दिन वो फ़िर गुज़री , "झाँसी की रानी" !! हम फ़िर चिल्लाये !! वो हर बार की तरह मुस्कुरा कर चल गयी।  इस बार मैं भी तैयार था , तुरंत अपनी साइकिल निकाली और उसका पीछा करने लगा , वो काफी आगे निकल गयी थी फ़िर भी मेरी नज़रों के दायरे में थी। फिर देखा की वह दायीं तरफ बने एक लोहे के गेट के अंदर मुड़ गयी , मैं फ़टाफ़ट  पैडल  मारते हुए उस गेट तक पहुँचा और साइकिल दीवार से सटा कर हांफता हुआ लोहे के गेट से झाँकने लगा।

उसने जैसे तैसे उस इमारत के दरवाज़े के सामने स्कूटर रोका , पैर नीचे पहुँचते जो नहीं थे।  फिर उसने साइड स्टैंड बड़ी मुश्किल से लगाया और पीठ पर बंधे उस बच्चे के साथ ही नीचे उतरी।  चार कदम चल कर सीढ़ियों तक पहुँची और फ़िर पलट कर गेट की तरफ मुँह कर कर धीरे धीरे बैठने लगी, अपने दोनों हाथ पीछे ले जा कर फ़िर उसने देखा की बच्चा ठीक से सीढ़ीओं पर बैठ गया है , और फ़िर उसने वो दुप्पटे की गाँठ खोल दी।
मैं अब भी गेट की उन लोहे की सलाखों के पीछे से उसे देख रहा था।

फ़िर मुझे वो बच्चा नज़र आया, नौ या दस साल का ही था, चेहरा बिलकुल अजीब सा था, होठों से लार टपक रही थी, उसके दोनों हाथ अलग अलग दिशा में हिल रहे थे, वो कुछ अजीब सी आवाज़ें निकाल रहा था, अपनी माँ को दोनों हाथों से जकड़ने की कोशिश कर रहा था , और वो उसे पकड़ पर उसे अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश कर रही थी। करीब पंद्रह मिनट तक ये जद्दो जहद चलती रही, कभी वो दुप्पटे को  संभालती कभी उसे, कभी रुमाल से उसका मुँह पोंछती कभी उसके साथ नीचे बैठ कर उसे मनाने की कोशिश करती। वो बहुत ज़ोर से अजीब सी आवाज़ें कर रहा था।   फ़िर किसी तरह वो उसे अंदर ले गयी।

ऐसा लगा जैसे किसी ने अंदर से मुझे जंझोर दिया हो , मुझे सब समझ में आ गया था, गेट से दो कदम पीछे हटा और ऊपर लगे बोर्ड पर नज़र गयी "समर्थ स्कूल ऑफ़ मेंटली चैलेंज्ड" , आँखें पानी से भरी हुईं थी फिर भी बोर्ड पर लिखा साफ़ साफ़ नज़र आ रहा था। मेरे पैर अब जवाब दे रहे थे, मैं गेट से हट कर दीवार पर पीठ सटा कर आसमान तांकने लगा। सीने में एक अजीब सी घुटन होने लगी थी।

ये मुझसे क्या हो गया, ये मैंने क्या कर दिया, ये रोज़ इस तरह यहाँ अकेली आती है, अकेली जूझती है और मैं उसका मज़ाक उड़ाता रहा। और उसने क्या किया, बस मुझे देख कर मुस्कुराती रही, सिर्फ मुस्कुराती रही। किस मुश्किल से उसने उसे स्कूटर से नीचे उतारा था , ना जाने कैसे बांधा होगा खुद से , ना जाने वो ये रोज़ कैसे कर लेती है।  कैसे हैं ये लोग, कहाँ से लाते हैं ऐसा दिल, कहाँ से लाते हैं ऐसी हिम्मत, मैंने दोनों हथेलियों से आँखें पोंछी , और फिर उन लोहे की सलाखों से झाँकने लगा।  वो सीढ़ियों पर बैठी थी कोई किताब हाथ में लिए , उसके वापस आने का इंतज़ार कर रही थी शायद।
मन किया की उससे जा कर माफ़ी मांग लूं , पर हिम्मत नहीं हुई।

कदम वापस लिए , दिवार से सटी साइकिल को लिया और वापस उस बरगद के पेड़ की तरफ जाने लगा। उसका मुस्कुराता वो सुन्दर सा चेहरा अब भी ज़हन में आ रहा था।

सच में झाँसी की रानी ही तो थी , झाँसी की रानी।




Picture from :http://www.visualphotos.com/photo/2x4284372/woman_reading_book_on_stairs_1835156.jpg

Monday, July 28, 2014

फौजी अकेला नहीं लड़ता...

आप में से बहुत लोगों ने देखा होगा , फेसबुक पर अक्सर एक बर्फीली छोटी पर खड़े एक फ़ौजी की तस्वीर पोस्ट की जाती है , -४० डिग्री के ख़ून जमा देने वाली ठंड में वो सीमा खड़ा रह कर हमारी रक्षा करता है , आपसे उस तस्वीर को लाइक और शेयर करने को कहा जाता है। ऐसा कैलेंडर की कुछ चुनिंदा तारीखों पर ही होता है , इन चुनिंदा तारीखों पर  देशभक्ति का एक अस्थायी जोश, एक अस्थायी भाव हमारे  और आपके ज़हन में दौड़ पड़ता है , वही अस्थायी जोश वही अस्थायी भाव जो सिनेमा हॉल में राष्ट्रगीत के समय खड़े होने पर आता है।  खैर जाने दीजिये, उस फौजी की बहादुरी , उसके बलिदान की तुलना तो क्या, कोई प्रश्न भी नहीं उठा सकता ,जान की बाज़ी लगा देने वाले उस जाबांज़ जवान को लाखों सलाम। 

मैंने भी उन तस्वीरों को अक्सर देखता हूँ , पर मुझे उन तस्वीरों में सिर्फ वो फौजी नहीं नज़र आता , मुझे उन तस्वीरों में कुछ और भी नज़र आता है , ये इसलिए क्योंकि मैं भी एक फ़ौज़ी का बेटा हूँ। मुझे और क्या नज़र आता है ?  मुझे उसकी वो बीवी नज़र आती है जो दूर किसी गाँव में घर पर अकेली अपने बूढ़े सांस ससुर की सेवा कर रही है,ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं है पर उन दो बच्चों को रोज़ स्कूल भेजती है , अकेले। फ़ौजी के पिता को इस बात का गर्व है की उसका बेटा फ़ौज में हैं ,गाँव भर में बताता फिरता है,  माँ और बीवी को भी गर्व है , पर एक डर भी है , वो डर जो हर फ़ौज़ी की माँ और बीवी को होता है , और अक्सर ये डर उस गर्व पर हावी रहता है ।  आप समझ सकतें हैं ना। 

ये किसी छोटे गाँव में बसे साधारण लोग होते हैं , आपसे और मुझसे बहुत अलग।  इनकी कहानियाँ कहीं नहीं छपती इनकी तस्वीरों को कोई फेसबुक पर लाइक नहीं करता। हम वो लोग हैं जो कैलेंडर की तारीखों के हिसाब से उस फौजी को याद करते हैं हमारा राष्ट्रप्रेम किश्तों में बाहर निकलता है। इन लोगों को कभी सिनेमा घरों में जाकर राष्ट्र प्रेम अनुभव करने का अवसर नहीं मिलता,पर देश के लिए ये जो रोज़ , हर पल , हर दिन करतें है , वो आप और मैं कभी नहीं कर सकते।

जितना मुश्किल उस फ़ौज़ी के लिए ठण्ड में सरहद पर खड़ा होना होता है , उतना ही मुश्किल उसके परिवार के लिए उस गाँव में अकेले रहना होता है, उतना ही मुश्किल उन दो बच्चों का रोज़ स्कूल अकेले जाना होता है । आपको सरहदों की तस्वीरों में वो फ़ौजी तो नज़र आता है , पर उसका पिता , उसकी माँ उसके बच्चे नज़र नहीं आते।   ना पिता का वो गर्व नज़र आता है ना माँ का डर। हम हर साल कैलेंडरों की उन तारीखों पर फ़िर चाहे वो १५ अगस्त हो , २६ जनवरी हो या कारगिल का विजय दिवस, उन फौजियों को याद करते हैं , पर हम कहीं न कहीं उनके परिवारों को भूल जातें हैं। 

एक फ़ौजी जब फ़ौज में जाता है ,वो  अकेला नहीं जाता , उसके साथ उसका पूरा परिवार जाता है , वो अकेला ठण्ड में सरहदों पर खड़ा नहीं रहता ,उसके साथ उसका पूरा परिवार खड़ा रहता है, जब जंग होती है तो उस जंग में वो फौजी अकेला नहीं लड़ता , उसके साथ उसका पूरा परिवार लड़ता है, और जब फ़ौजी शहीद हो जाता है , जब वो मरता है , वो अकेला नहीं मरता , उसके साथ उसका पूरा परिवार मरता है। पूरा परिवार .



Pic From : https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0uGiLiZgtAQ0VMhyHZMgTpLI4PsHKvUwcTgB_naePxqg-mHXBhYBvujhyDzZ-8ahi-KCuHdptCZqWz9ByqaUZdAXWqjFkoUQwhc1Qq6pWwjr6VGpn0Tt43gMNSmIeFDkGhoXSCIkGw8k1/s1600/Indian_Army_soldier_at_Camp_Babina.jpg

Tuesday, May 27, 2014

छोटू .....

तीन दिन हो गए थे "थ्री इडियट्स" देखे हुए , रात को ठीक से अब भी नींद नहीं आ रही थी। जैसे ही आँखें बंद होती, उसका चेहरा सामने आ जाता, चाय के तीन गिलास हाथ में, एक फटी पुरानी सी बनियान और खाकी हाफ पैंट।
हाँ, वो था हमारा मिलीमीटर, बहुत याद करने पर भी उसका नाम याद नहीं आ रहा था, मुझे अगर कुछ याद था तो वो था "छोटू" ।

"छोटू"...  दो अक्षर के इस "छोटू" के पीछे उसकी सारी कहानी, उसकी सारी शक्शियत, उसका नाम, सब छुप गया था, और अगर कुछ बचा था तो वो था "छोटू"।

मैं हैरान हूँ, चार साल तक मुझे इस बात का एहसास तक नहीं हुआ, वो चार साल जिसमे शायद ही किसी दिन उसके हाथ की चाय न पी हो। चार साल..... कुछ शर्म सी महसूस होने लगी थी, की एक फ़िल्म देखने के बाद मुझे ये एहसास हुआ, पर शायद डेढ़ सौ रूपए की उस टिकट ने मुझे एहसास करा दिया था की मैं कितना कंगाल था। हाँ कंगाल ही तो, चार साल लगे इंजीनियर बनते बनते, नौकरी, कार, घर सब कुछ तो था मेरे पास, पर कुछ ऐसा भी था जो मेरे पास आज तक नहीं था। तय कर लिया की अब कुछ कदम वापस लौट के जाना होगा, कुछ जवाब देने होंगे,  रात में चैन से सोना जो था।

दूकान ठीक वैसी ही थी, लकड़ी की बेंच भी वही, और काँच के पीछे वो बिस्कुट के पैकेट अब भी वैसे ही पड़े हुए थे। मैं उसे इधर उधर ढूढ़ते ढूंढते अपनी उसी पुरानी बेंच पर बैठ गया, बेंच वही थी पर अब कुछ कमज़ोर सी हो चुकी थी, हिलने लगी थी। वो काला निशान, जो सिगरेट जलाते हुए गिरी माचिस की तीली से हुआ था, अब भी था,  मैंने चार उँगलियों से उस निशान पर हल्का सा हाथ फेरा। कुछ चीज़ें शायद हमेशा के लिए रहतीं हैं।

आसपास कुछ लड़के बैठ कर चाय पी रहे थे, चाय का ग्लास अब थोड़ा छोटा हो चूका था, हाँ पर रंग वही था।मगर वो चाय पिलाने वाला, वो चाय पिलाने वाला छोटू कहीं नज़र नहीं आ रहा था।

फिर देखा, जहां उस दूकान का मालिक बैठा करता था वहाँ एक १६-१७ साल का लड़का बैठा हुआ था,  चेहरा वैसा ही था , हाँ हल्की हल्की सी ढाढ़ी मूछें निकल आयी थी।  बैठे बैठे कुछ हिसाब लिख रहा था शायद, ये वही था, वही।  मैं उठ कर उसकी और बढ़ा।

"पहचाना मुझको" ?

उसने गर्दन उठा कर मेरी और देखा, कुछ देर सोचता रहा।

साहब आप  !!! आप आज इधर !! इतने दिनों बाद  !!! एक बार गए फ़िर लौटे ही नहीं ,आज इधर कैसे साहब !!

"आइये आइये , बैठिये ना " !!

वो अपनी कुर्सी से उठा और मुझे वहाँ बैठने का इशारा करने लगा।

"अरे नहीं नहीं बैठो "

न मैं उसे अब छोटू बोल सकता था, न मुझे उसका नाम मालूम था, फिर भी हिम्मत कर के मुँह से निकल ही गया।

" कैसे  हो छोटू ? , बहुत बड़े हो गए हो ? "लगता है दूकान भी तुम ही संभाल रहे हो ?"

"जी साहब कुछ ऐसा ही समझ लीजिये"

मैं अब भी सोच रहा था की उससे उसका नाम पूछूँ  या नहीं। ।  पर … ??

फ़िर उससे उसकी कहानी सुनी की किस तरह वो आज उस कुर्सी पर बैठा है , किस तरह अब लोग पहले की तरह चाय नहीं पीते,  कॉफ़ी भी चलने लगी है , महँगाई , उधारी और न जाने क्या क्या।
वो बोले ही जा रहा था जैसे इससे पहले उसे ये सब बातें, किसी को बताने का मौका नहीं मिला था, या यूं कहिए बताने के लिए कोई मिला ही नहीं था।

मैं उसे रोकना चाह रहा था, उसे बताना चाह रहा था की मैं उसका शुक्रिया अदा करने आया था, उसे कुछ जवाब देने आया था।

"छोटू" … "छोटू" सही नहीं था , चार साल तक वो छोटू ही रहा।

मेरे ज़हन में ये सब बातें चल रहीं थी की वो अचानक बोलते बोलते रुक गया।

"अरे साहब !! आपको चाय पूछना ही भूल गया।

पी कर देखिये, आज भी पहले जैसी ही है।

उसने गर्दन टेढ़ी की , अपना दायां हाथ ऊपर उठा कर हिलाया और ज़ोर से चिल्लाया

"छोटू !! दो चाय लाना। … स्पेशल !!

मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी, मेरे हाथ पैर सुन्न पड़ गए , ज़हन में जो बातें चल रहीं थी एक झटके के साथ रुक गयीं। एक सन्नाटा सा छा गया मेरे चारोँ और , मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था , उस "छोटू" शब्द के बाद सब शांत हूँ चूका था।  सब।

फिर वो छोटू आया, नया छोटू।  दो चाय के ग्लॉस ले कर , फटी पुरानी हॉफ पैंट , एक बड़ी ढ़ीली ढ़ाली शर्ट और पतले से हाथ और लम्बे बाल। ये छोटू थोड़ा अलग था पर था छोटू ही, उसने मेरे सामने चाय का ग्लॉस रख दिया , मैंने नज़रें उठाई , उसकी आँखों में देखा। वो कुछ देर मेरी ओर देखता रहा फिर मुड़ कर चला गया। कपड़े उसके फटे थे पर नंगा मैं महसूस कर रहा था।

चाय बहुत फीकी फीकी सी लगी , और ठंडी भी।

मैं इतनी दूर एक जवाब देने आया था , पर अब ना जाने कितने सवाल खड़े हो चुके थे।

कौन हैं ये छोटू  ? कहाँ से आतें हैं और कहाँ चले जातें हैं ?

छोटू बड़े तो हो जातें हैं , पर फ़िर उनकी जगह नये छोटू ले लेते हैं।

ये वो छोटू हैं , जो उस चाय की दूकान पर हमे चाय पिलाते हैं ,
हमे सिगरेट जलाने के लिए माचिस ला कर देते हैं.
ये वो छोटू हैं , जो रोज़ सुबह आपके दरवाज़े के नीचे से अखबार सरका जातें हैं ,
ये वो छोटू हैं जो इमारत के नीचे आपकी गाड़ी धोते हैं
ये वो छोटू हैं , जो रेस्टोरेंट में आपके टेबल पर बिसलेरी की बोत्तल रख जातें हैं,
ये वो छोटू हैं जो उस पेड़ के नीचे आपको मस्का बन और ऑमलेट खिलाते हैं,
ये वो छोटू हैं तो आपके बगल में टिश्यू पेपर का वो बॉक्स पहुँचाते हैं
ये वो छोटू हैं जो आपके बियर के ग्लास के बगल में भुनी हुई मूंगफली रख जातें हैं ,
ये वो छोटू हैं जो किसी ढ़ाबे के पीछे आपको बर्तन चमकाते हैं,
ये वो छोटू हैं जो किसी मैकेनिक के गैरेज में काले मैले हाथों से रोज़ टॉयर बदलते हैं,  


ये वो छोटू हैं , जो कभी बड़े नहीं होते।

सच तो ये है की, हम इस छोटू को कभी बड़ा होने ही नहीं देते, कभी बड़ा होने नहीं देते।




Pic From : http://yogilightbox.files.wordpress.com/2012/08/dsc_0491.jpg

Saturday, March 1, 2014

"मुस्कान"


तीसरे मंज़िल पर मेरे ही फ्लैट के बगल में रहती ही , बस एक दरवाज़े बगल का , उम्र कुछ ८-९ साल कि होगी, तीन महीने से वे लोग बगल में रहने आये थे।   

एक बार यूं ही जब मेज़ पर बैठे बैठे कुछ लिखने कि कोशिश कर रहा था कि दरवाज़े कि खुलने कि आहाट आयी , पहले तो यूं लगा जैसे हवा से ही खुला होगा, पर फिर फिर वो दो आँखें नज़र आयी , कुछ पल तक तो वो मुझे देखती ही रही, फिर  ज़रा सा और दरवाज़ा खोला , बिलकुल ज़रा सा। 

मैंने हथेली से इशारा कर के बस अपनी और बुलाया ही था कि वो झट से पूरा दरवाज़ा खोल कर सीधा मेरे मेज़ के पास आ खड़ी हो गयी, थी तो ८-९ साल कि ही मगर उन पन्नों पर मेरे लिखे हुए शाब्दों को ऐसे देख रही थे मानो कि जायज़ा ले रही हो। 

बेटे क्या नाम है आपका ?
उसने मेरी तरफ मुड़ कर देखा तक नहीं
बेटे क्या नाम है ?
बेटे ?
वो मेरी नोटबुक कि तरफ ही देखे जा रही थी , मैंने अपना हाथ उसकी कोहनी पर रखा और उसे हल्का सा झंजोरा
बेटे क्या नाम है आपका ?
उसने अपना चेहरा तुरंत मेरे चेहरे के तरफ घुमाया और मुस्कुराने लगी मैंने फिर पुछा
क्या नाम है बेटा ?

वो अब भी मुस्कुरा रही थी, मुझे कुछ अजीब सा  लगा , काफी देर हो गयी थी उसने कुछ भी नहीं कहा था बस, मुस्कुराए जा रही थी, मेरे मन में एक डर घर कर गया, कहीं ???

नहीं ऐसा कैसे हो सकता है, मैंने डरते डरते पेन हाथों में उठाई, कॉपी का एक पन्ना पलटा।
वो इस तरह से मुझे देख रही थी जैसे उसे पता हो कि मैं क्या करने वाला हूँ, मैंने धीरे धीरे उस पलटे हुए पन्ने पर लिखा  
"तुम्हारा नाम क्या है बेटा " ?

बस ट  पर आ कि मात्र लगी ही थी कि उसने एक हाथ से मेरी ठुड्ढी अपने चेहरे के तरफ घुमाई  और अपने दोनों हाथों से अपने होठों कि तरफ इशारा किया और मुस्कुराने लगी
 "ख़ुशी" ?
उसने अपने दोनों हाथ सर पर रखे  जैसे मैंने कोई बड़ी बेवकूफ़ी कर कि हो और फिर से दोनों हाथों को होठों के पार ले जाकर वही इशारा किया
 "हंसी" ?  अरे हाँ।   "मुस्कान"

मेरे मुस्कान कहते ही उसकी मुस्कान  हंसी में बदल गयी, मैंने मुस्कान उस नोटबुक पर भी लिख दिया, ये सोच कर शायद कि उसने मेरे होंठ सही पढ़े  हैं, वो अपना नाम उस नोटबुक पर लिखा देख और खुश हो गयी।

पन्नों , मेरे और उसके बीच इसी तरह कुछ देर तक बातें हुई , मैंने एक नयी नोटबुक निकाली और उस पर उसका नाम लिख दिया और पहले पन्ने पर लिखा " तुम्हारा नाम क्या है " वो बड़ी तेज़ थी, समझ गयी कि मैं उससे उसकी भाषा सीखना चाहता हूँ। उसने फटाफट इशारों से मुझे समझा दिया, मैंने उन्ही इशारों को फ़िर से दोहराया , और उसने अपने हाथ अपने होठों कि तरफ ले जाकर इशारा कर के जवाब भी दिया, फिर हम दोनों काफ़ी देर तक हँसे।

वो इसी तरह रोज़ आती , रोज़ मुझे कुछ नया सिखाती। मैं उसके लिए कुछ किताबें ले आया था, शाम को कुछ देर के लिए वह आती उन किताबों  में जाने क्या ढूंढती , मेज़ पर रखे हुए पेनों से खेलती और मुझे अपनी भाषा में रोज़ कुछ नया सिखा जाती । ये सिलसिला करीब डेढ़ महीने तक चलता रहा , हम अच्छे दोस्त बन गए थे, वो शाम को रोज़ आकर अपने दोस्तों के बारें में बताती , किताबों में तस्वीरें देखती कुछ देर बैठती और चली जाती।   मैं रोज़ उस से एक चीज़ सीखता , उसको दोहरा कर उसको दिखाता , और वो सर हिला कर हंसती। एक अलग ही दुनिया हो गयी थी हम दोनों कि, मुझे ये एहसास हो चूका था कि वो क्यों इस तरह मेरे करीब आ गयी थी , सारी दुनिया उसे कुछ न कुछ सीखाने में लगी हुई थी , और एक मैं था जो उससे सीखता था अजीब सा लगता था कि चुप रह कर भी वो कितना कुछ बोल जाती थी 

मैं करीब करीब उसकी भाषा में बहुत कुछ सीख गया था, कभी जब अकेला होता हो वो नोट बुक उठाता और हर पन्ने पर लिखी हुई बातों को अपने हाथों से दोहराता , और फिर जब वो शाम को आती हम दोनों के हाथ आपस में बातें करते , और हम दोनों भी। 

ये उस दिन कि बात है , दफ्तर से आते आते ज़रा सी देर हो गयी, ज़ोरों कि बारिश शुरू हो चुकी थी , सड़कें नदियाँ हो चुकीं थी , मैं किसी तरह भीगते भागते घर पहुँचा , बिल्डिंग के नीचे एक टेम्पो खड़ा था, किसी का घर का सामान था शायद , कोई दूसरे शहर जा रहा था , करीब आठ दस लोग और भी खड़े थे।  

ठण्ड से बदन कांप रहा था , इसलिए मैं जल्दी जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ते हुए घर कि और बढ़ा, गीले कपड़ों में ज्यादा रहूँगा तो बुखार आ जाएगा , उसके घर के दरवाज़े पर आज ताला लगा हुआ था , कहीं बाहर गए होंगे शायद। घर आकर तुरंत कपडे बदले , गैस पर चाय रखी और तौलिया सर पर रगड़ते हुए खिड़की के पास आया , बाहर वो टेम्पो अब गेट के पास खड़ा था , फिर देखा उसके पीछे एक टैक्सी भी खड़ी थी, टैक्सी के पीछे वाली खिड़की से कोई हाथ हिला रहा था , कुछ अजीब सा लगा क्यों कि वो जो भी था अपने दोनों हाथ हिला रहा था। 

मैंने तौलिया बिस्तर पर फैंका , और दोनों हाथ खिड़की के उस भीगते फ्रेम पर रख कर उस कार कि तरफ देखने लगा , 

ये वही है , ये वही है , पर यूं अचानक इस तरह जाना ??

मेरा ध्यान फिर उस कार कि खिड़की पर गया, फिर वो चेहरा सामने आया , बारिश में भीगता हुआ, वो मेरी ही खिड़की कि तरफ देख रही थी , वो जब नहीं देख रही थी तब भी वो हाथ मेरी खिड़की कि तरफ ही इशारे कर रहे थे , उसने मुझे देख लिया था, वो वही इशारे बार बार दोहरा रही थी , मैंने अपना चेहरा थोडा और बाहर निकाल कर समझने कि कोशिश कि। एक तो बारिश कि उन टकराती बूँदो से मेरी आँखें ठीक से खुल नहीं रही थी , और वो जो इशारे कर रही थी वो मैं समझ नहीं पा रहा था।  

उसने वो मुझे सीखाया नहीं था,  मैं भी क्या जवाब देता , एक हथेली बाहर निकाल कर हिलाता रहा, पर वह अब भी वही इशारा कर रही थी , जाने क्या कहना चाहती थी , जाने क्या बताना था उसको , बाल पूरे माथे से चिपक गए थे , मैं भी फिर से भीग गया था। 

फ़िर कार के साइलेंसर से धुंआ उठा , मैं तुरंत मुड़ कर नीचे कि तरफ दौड़ा , तौलिया उठाने का मतलब नहीं था , मैं उससे कहीं ज्यादा गीला था। नीचे पहुँचा तो कार गेट तक पहुँच चुकी थी , सब शीशे बंद हो चुके थे अब , मैं बस खड़ा खड़ा हाथ ही हिलाता रहा , कार के गुज़र जाने के बाद भी। फिर हलके हलके क़दमों से लौटने लगा , वो क्या कह रही थी , क्या इशारे कर रही थी , मुझे सीखाया भी तो नहीं था , मुझे सीखाया भी तो नहीं था /

कुछ तो कहना चाहती थी , कुछ तो। 

दरवाज़े के पास पहुंचा तो देखा , कि एक पन्ना पड़ा हुआ है नीचे , किसी ने शायद दरवाज़े के नीचे से सरका दिया होगा , जल्दी में था इसलिए पहले ध्यान नहीं गया , हल्का सा भीग गया था , मैंने पलटकर देखा उस पर एक गोल चेहरा बना हुआ था , हँसता हुआ।  

मैं हल्का सा मुस्कुराया, आँखें पोंछी और वापस खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया, चाय गैस पर पड़ी पड़ी जल चुकी थी , और मैं खिड़की पर खड़ा खड़ा।  

कई साल हो गए हैं अब, वो नोट बुक अब भी संभाल कर रखी हुई है , और वो पन्ना भी उस नोटबुक के अंदर रखा हुआ है 

मैं आज भी ये सोचता हूँ जाने वो उस दिन क्या कहना चाहती थी , मैं आज तक जान नहीं पाया पर मैं
जब भी कभी उदास सा हो जाता हूँ , वो पन्ना उठा कर देखता हूँ , वो गोल चेहरा मुझे देख कर आज भी मुस्कुराता है , और उसे देख कर मैं भी। 

     "मुस्कान "




Pic From:
http://www3.nd.edu/~halftime/pictures.html

Friday, January 24, 2014

वो ऐसे पल रहे थे

खुद को खुदा के बहुत पास महसूस किया है मैंने
 तेरे साथ बीते, वो ऐसे पल रहे थे

 मैंने जब भी घर से बाहर कदम रखा है तो देखा है
 पल्लू उँगलियों में दबाये, तेरे हाथ आँख मल रहे थे

दिवाली होली पर जब हम खोये रहे अपनी मस्तियों में
रसोई में हाथ उसके, गुजिए तल रहे थे

तुम ना जाने कब के सो गए थे उसकी गोद में
उसके हाथ तुम्हारे पीठ पर, तब भी चल रहे थे

 कल जब मैं भीड़ में अकेला चल रहा था माँ
 पैरों को जाने क्यों, रास्ते खल रहे थे

तेरा हाथ सर पर रहता है तो रौशनी सी रहती है
वरना रोज़ सूरज डूबता था, रोज़ दिन ढल रहे थे


Pic From
http://www.google.co.in/imgres?imgurl=&imgrefurl=http%3A%2F%2Ffineartamerica.com%2Ffeatured%2Findian-mother-rosane-sanchez.html&h=0&w=0&sz=1&tbnid=aV9-F73waljB4M&tbnh=215&tbnw=234&zoom=1&docid=nnGIxZYboUYg6M&ei=oV7hUrLiDMeBrQf8ooGABg&ved=0CA4QsCUoBA

Saturday, January 4, 2014

मेरे साथ अक्सर..... अक्सर ऐसा हो जाता है....

मेरे साथ अक्सर..... अक्सर ऐसा हो जाता है
कागज़ों से दोस्ती टूट जाती है।
कलम मुँह फुला कर मेज़ के उस तीसरे दराज़ में छुप जाती है
झुका सा बंद पड़ा वो स्टडी लैंप मुझ पर चीखता चिल्लाता है
मेरे साथ अक्सर..... अक्सर ऐसा हो जाता है

मेज़ के नीचे पड़ा वो स्टील का महंगा कूड़ेदान , कुछ खाली खाली सा है
उँगलियाँ बस एक दूसरे को ज़रा ज़रा सा छू कर ही खुश हैं
मैं चुप चाप बालकनी में बैठे उन गाड़ियों को आते जाते देखता हूँ
उन फड़फड़ाते पन्नों का फहुसफुसाना,हॉर्न के शोरों में दब सा जाता है
मेरे साथ अक्सर..... अक्सर ऐसा हो जाता है

मैं जिसे रोज़ ज़रा ज़रा सा दिल से निकाल कर कागज़ों में भरता हूँ
वो यादें जो कागज़ों के साथ मिल कर मुझ पर हँसती हैं
मैं उन कागज़ों को ज़हन में ही चुप चाप जला देता हूँ
पर ऐशट्रे में पड़ी उन बुझी हुई सिगरेटों को जाने कैसे पता चल जाता है
मेरे साथ अक्सर..... अक्सर ऐसा हो जाता है




Pic From : http://blenderartists.org/forum/showthread.php?178447-Old-Desk