Pages

Saturday, December 1, 2018

360 सेकंड ...

कार की चाबी घुमाने से पहले शीशे में देखा, सुमन मुँह फुला  कर पीछे बैठी थी । 

"अब खुश" ?

ऑफिस की पार्टी थी, और वह कांजीवरम पहनना चाहती थी, मेरे बड़े समझाने के बाद जीन्स पर राज़ी हुई थी।

"कुछ ही घंटों की बात है सुमन प्लीज्, साड़ी अजीब लगेगी" 

"मैंने कहां कुछ कहा" ?

मैंने चाबी घुमा दी और ऐसी का पंखा 4 पर कर दिया, वो अब भी गुस्से से बाहर देख रही थी।

"अच्छा बाबा सॉरी, जाओ बदल लो"

"ल" पर "ओ" की मात्रा लगने तक वो दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर के जा चुकी थी।

कुछ देर बाद हम सिग्नल पर थे, 

"360 सेकंड का भी कोई सिग्नल होता है" ?

उसका गुस्सा अब भी उतरा नहीं था, वो आगे की सीट पर बैठने को तैयार नहीं थी। मैं मेमसाब का ड्राइवर लग रहा था पर कांजीवरम में वो बहुत सुंदर लग रही थी।

सिग्नल के बगल में फुटपाथ पर एक 8-10 साल की बच्ची, एक साल के बच्चे के साथ खेल रही थी, शायद भाई था। उनकी माँ कुछ ही दूर गाड़ियों के शीशे ठकठाकाती पंखे बेच रही थी। जैसे ही उस लड़की ने हमारी गाड़ी देखी, वह दौड़ती हुई आई और पीछे का शीशा ठकठकानेलगी, उसके मैले हाथों ने शीशा गंदा कर दिया। सुमन वैसे ही गुस्से में थी, उसने उसे हाथ से जाने का इशारा किया,पर वो फिर भी ठकठाकाती रही।
"आज इसकी ख़ैर नहीं"

सुमन ने शीशा नीचे किया और ज़ोर से चिल्लाई।

"ऐ पागल लड़की चल भाग यहाँ से" !!!

आवाज़ इतनी ऊँची थी कि वो लड़की सहम गई और तुरंत भाग कर वापस अपने भाई के बगल में बैठ गयी, अब वह खेल नहीं रही थी।

150 सेकंड

मैं उस लड़की की ओर देख रहा था, शीशे में देखा तो सुमन भी। वह लड़की टकटकी लगाए सुमन की ओर वापस देखे जा रही थी।

"सुनो, उसे बुलाओ और कुछ दे दो"
सुमन ने धीरे से कहा, उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था।

मैंने टोल टैक्स कि रसीदों के बीच में से एक दस का नोट निकाल कर सुमन की ओर बढ़ा दिया।

"तुम ही दे दो, सही रहेगा"

सुमन ने दस का नोट हाथ में लिया, कर का शीशा नीचे किया, 

"सुनो, इधर आओ"

30 सेकंड 

वो लड़की दौड़ते हुए आई, सुमन ने मस्कुराते हुए कहा

"ये लो, पर ऐसे किसी की गाड़ी का काँच गंदा नहीं करते, ठीक है" ?

15 सेकंड

"नहीं नहीं दीदी, पैसे नहीं चाहिए"

"वो आपकी साड़ी दरवाज़े के बाहर थोड़ी रह गई है, सड़क पर गंदी हो रही है"
उसने अपनी उँगली से नीचे की ओर इशारा करते हुए कहा।

सिग्नल हरा हो चुका था, पीछे वाली गाड़ी ने ज़ोर से हॉर्न बजाना शुरू कर दिया।
मैंने पीछे देखा, वो लड़की और सुमन दोनों एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे।

हॉर्न दुबारा बजा, इस बार ज़्यादा देर तक, लड़की वापस अपने भाई के पास भाग गई। मैंने भी गाड़ी आगे बढ़ा दी, दरवाज़ा खुल कर बंद होने की आवाज़ आई, सुमन ने साड़ी अंदर ले ली थी। करीब 20 मिनट का रास्ता बचा था ,वो शून्य में कार के बाहर देख रही थी, शीशा अब भी खुला था, सारे रास्ते हम चुप रहे। हवा से उसके बाल उड़ रहे  थे,पर उसे शायद एहसास ही नहीं था की शीशा खुला रह गया है। पहुँचने के बाद मैंने दरवाज़ा खोला,

"सलाम मेमसाब" !!

मैंने माहौल हल्का करने की कोशिश की,  पर उसने कोई जवाब नहीं दिया।

"सॉरी , बहुत सुंदर लग रही हो, मुझे ज़िद नहीं करनी चाहिए थी"।

उसके चेहरे पर अब गुस्सा नहीं था, पर कुछ और भी नहीं था।

उसने अपना पल्लू ठीक किया...

वो दस का नोट, वो दस का नोट अब भी उसकी मुट्ठी में सिकुड़ा हुआ पड़ा था।



Pic from: 
https://www.google.com/imgres?imgurl=http%3A%2F%2F1.bp.blogspot.com%2F-Cz22mhDKmOQ%2FVm5iSnKL3sI%2FAAAAAAAAIpE%2F4tnwZGZY9NY%2Fs1600%2FBegger_girl.jpg&imgrefurl=http%3A%2F%2Fprabir-citizenjournalist.blogspot.com%2F2015%2F12%2Fchild-traffickers-rope-in-8-year-old.html&docid=8bAhG25cf5jAbM&tbnid=xVa7K7imGwLc2M%3A&vet=10ahUKEwicyI6Bg_7eAhUbiHAKHWaeBkgQMwiJASg9MD0..i&w=800&h=533&itg=1&client=safari&bih=837&biw=1440&q=begging%20girl%20at%20car%20window&ved=0ahUKEwicyI6Bg_7eAhUbiHAKHWaeBkgQMwiJASg9MD0&iact=mrc&uact=8





Saturday, November 24, 2018

सूखा पेड़

आंगन के बीच लगा वो पेड़ अब लगभग सूख चुका था।  माँ को कितनी बार कहा था, अगर ठीक से उग नहीं रहा है तो कटवा दो। 
रेणु टीचर भी कहती थी कि घर के  आंगन में सूखा पेड़ शुभ नहीं होता । पर ताज्जुब तो ये था की अब भी उसकी कुछ पत्तियां बची कैसे हैं ?
मैं घर के पीछे, आंगन में बैठे बैठे धूप सेंकते हुए ये  सोच रहा था। बहुत दिनों बाद छुट्टियों पर घर लौटा था।

"सूख गया है, उखाड़ क्यों नहीं देता " ?

माँ रसोई से चिल्लाई,
माँ रसोई में दोपहर का खाना पका रही थी, तभी अचानक आंगन के दरवाज़े को किसी ने ज़ोर से धक्का दे कर खोल दिया ।  वह सीधा अंदर घुस गया, फटे कपड़े, बाल धूल भरे  लंबे और गले में न जाने कितनी मालाएँ थी, कुछ छोटी कुछ लंबी। एक हाथ में पुराना स्टील का डिब्बा था , हैंडल वाला। वो जैसे दूधवाले लाते हैं ना वैसा पर उस पर ढ़क्कन नहीं था। दूसरे हाथ में अलमुनियम के फॉयल में लिपटा कुछ बासी खाना था, जिसे वो मुठ्ठी में जकड़े हुए था ।

"अरे कौन हो ? , जाओ भागो " !

" ऐसे घर में क्यों घुस रहे हो" ?

मैंने तुरंत खड़े होते हुए कहा।
मैंने एक कदम आगे बढ़ाया, उसने भी अपना हाथ आगे बढ़ा दिया,  वो हाथ जिसमें उसने बासी खाना पकड़ रखा था।

"कुछ नहीं है, चले जाओ "

उसने हाथ नीचे कर लिया, मेरी ओर देखा, फिर से हाथ उठाया, मैंने सर हिला कर "नहीं " का इशारा किया।
वह इधर उधर आंगन में देखने लगा, दो कदम आगे आया और उस सूखे पेड़ की बगल में खड़ा हो गया । मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था, डर सा लगने लगा था अब ।
वो बहुत देर तक उस पेड़ को देखता रहा। कुछ देर यूं ही घूरने के बाद उसने अपनी गर्दन ऊंची की और मुझे देख मुस्कुराने लगा।

"चले जाओ, कुछ नहीं है"
"एक बार दिया, तो फिर ये रोज़ आएगा"
"अरे क्या हुआ , कौन है ?"
"कुछ नहीं माँ कोई नहीं है "
"खाली बैठा है तो  वो पेड़ ही उखाड़ दे  बेटा "
"हाँ ... माँ "
"जाओ चले जाओ, माँ आएगी तो मुसीबत हो जाएगी"

उसका मुस्कुराना अब भी रुका नहीं था, वो  उस सूखे पेड़ की तरफ  अब भी देख रहा था। मैं आंगन में कुदाली ढूंढने लगा, स्टील के दो ड्रमों के पीछे पड़ी थी, आख़िर मिल ही गयी।
मैंने कुदाली हाथ में उठाई और जैसे ही मुड़ा तो सन्न रह गया। वो पागल उस स्टील के डिब्बे से उस सूखे पेड़ पर पानी डाल रहा था। मैं थोड़ी देर खड़े खड़े उसे यूं ही देखता रहा। उसने सारा का सारा पानी उस पेड़ पर उड़ेल दिया, गर्दन ऊंची की मेरी तरफ देख मुस्कुराया और फिर चुप चाप बाहर चला गया।

"अरे उखाड़ दिया क्या ? "

मेरे हाथ से कुदाली छूट गयी, मैं पेड़ की ओर बढ़ा उसकी जड़ें तर हो चुकी थी ।

"क्या हुआ , उखाड़ दिया क्या ?"

"नहीं माँ , एक बार पानी डाल कर देख लेते हैं, शायद वापस उग जाए ।"


पेड़ के ठीक बगल में फॉयल में लिपटा बांसी खाना पड़ा हुआ था।

Saturday, November 3, 2018

थर्ड AC - भाग - २

मैने मुस्कुराकर सर हिला दिया, 
"नहीं होगी"   
अपना सामान सीट के नीचे रख कर वह उसी तरह पैर रख कर बैठ गयी, जिस तरह कुछ देर पहले उसी सीट पर मैं बैठा था । ट्रेन चल पड़ी, मैं बगल की सीट पर बैठे बैठे ये याद करने की कोशिश कर रहा था की बाहर चार्ट में  40 नंबर की बर्थ पर क्या नाम लिखा था ?

तभी TC आया और हमारे बीच में खड़ा हो गया, मैंने अपनी जेब से टिकट निकाल कर आगे कर दी और फिर उसने भी।

मेरी टिकट वापस करने के बाद TC ने उसकी टिकट हाथ में ली, कुछ देर देखा, कोट की अंदर वाली जेब से पेन निकाल कर टिकट पर चार टिक लगाए और फिर थोड़ी देर रुक गया, फिर अपना चार्ट देखा और उसकी तरफ देखते हुए बोला,

"मैडम ID दिखाइए"

वह ज़रा सी घबरा गई, कांपते हाथों से ID पर्स से निकाला और TC को दे दिया, वह ये उम्मीद लगाए बैठी थी की TC कुछ ना कहे और मैं इस उम्मीद में था की कम से कम उसका नाम तो ले।

उसने मेरी तरफ देखा, मानो उसकी आँखें  डाँटते हुए मुझसे ये कह रही थी "आप तो कह रहे थे कि कोई प्रॉब्लम नहीं होगी" !!। 
मैंने उंगली अपने होंठों पर रखी, और इशारा किया "sssshh"।

कुछ देर बाद TC ने पांचवा टिक लगा कर उसे उसका ID और टिकट वापस कर दिया। उसने लंबी सांस लेते हुए टिकट हाथ में लिया फिर मेरी ओर देखते हुए मस्कुराकर कहा .. 

"थैंक यू , विशाल" !!

मैंने हैरानी से अपनी भौहें तानी ... "जी" ??
"आपको ... ? आपको मेरा .....  ? "

उसने फिर मुस्कराते हुए मुझे बीच में ही रोकते हुए कहा 

"लड़की अगर ट्रेन में अकेले सफर कर रही हो, तो चार्ट तो उसे भी देखना पड़ेगा ना " ?


Pic From: https://www.inmarathi.com/unknown-rules-about-indian-railway/indian_railways-marathipizza1/

Wednesday, October 31, 2018

थर्ड AC - भाग - १


थर्ड एसी ... थर्ड एसी वो बीच का रास्ता है जिसमे हम जैसो को ठंडी हवा भी मिल जाती है और थोड़े बहुत पैसे भी बच जाते हैं ... हर बार की तरह बाहर चार्ट में अपने नाम के ऊपर नीचे देखा , सब बुज़र्ग ही थे, 
"भाग में ही लिखा है साला" !

ख़ैर, अप्पर बर्थ मिली थी पर कोने में  35 नंबर पर अंकल बैठे थे सो साइड बर्थ 40 पर पैर लंबे कर के बैठ गया ।

फिर देखा, सफ़ेद सलवार सूट में वो सूटकेस घसीटते हुए सबसे छुअन बचाते हुए दरवाज़े से चढ़ी, खुशी हुई पर इतनी भी नहीं , क्योंकी मैं बाहर चार्ट देख चुका था। 

लगा की वो बगल से गुज़र ही जाएगी , पर रुक कर अपने कान के ऊपर लट डालते हुए पूछने लगी , आपकी सीट कौनसी है ?  बहुत सुंदर थी ।

सवाल मुझसे किया था, पर बगल की सीट से वो अंकल उठ गए, मैं चुपचाप अपनी सीट पर जा कर बैठ गया ।

कुछ देर बाद फिर आवाज़ आई, 
सुनिये !!  

"वो age में 25 का 52 हो गया है, कोई प्रॉब्लम तो नहीं होगी ना ... ?? 


Pic from: https://www.ixigo.com/indian-railways-to-remove-reservation-charts-from-7-major-stations-story-1124299

Monday, October 15, 2018

मंदिर

मेरे दफ़्तर का रास्ता मंदिर के सामने से गुज़रता था, वह बाहर बैठी रोज़ मुझे देख कर मुस्कुराती, एक हाथ में गेंदे का हार लिए तमिल में कुछ कहती , मैं मुस्कुराते हुए "नहीं अम्मा" कहते हुए हाथ दिखाता हुआ निकल जाता ।

यह रोज़ होता था, वह रोज़ हाथ में फूल लिए कुछ बोलती, मैं रोज़ मुस्कुराता हुआ निकल जाता ।

बचपन से कभी खुद मंदिर नहीं जाता था, माँ बहुत ज़िद करती थी पर प्रसाद के अलावा मुझे कोई और कारण नज़र नहीं आता था। फिर एक दिन माँ का मैसेज आया , व्हाट्सएप्प पर

"बेटा मंदिर में फूल चढ़ाना"

माँ को ठीक से मोबाइल इस्तेमाल करना भी नहीं आता , और आज न जाने कहाँ से वॉट्सएप सीख कर वह मुझे ये लिख रही है ...

"टिंग" , फिर मैसेज आया

"तुम्हारी माँ को अच्छा लगेगा"

माँ भी ना ...

अगले दिन शाम को दफ्तर से लौटते समय कार्तिक साथ आया, मंदिर पर बाइक रोकी पर वह अम्मा वहाँ  नहीं दिखी। मैंने उसकी बगल में बैठने वाली से फूल ले लिए, वह मुझे पहचान गई थी।
वापस बाहर निकलते समय उसी फूल वाली से कार्तिक को पूछने को कहा
"इससे पूछो वो अम्मा कहाँ हैं "?
कार्तिक ने उससे तमिल में कुछ बात की

"वह अम्मा अब नहीं रही" !!
"क्या" ??

मैं छह महीने तक उसे देख मुस्कुराता हुआ  निकलता रहा और आज जब उससे मिलना था तब ...

कुछ सूझा नहीं क्या जवाब दूं  ? खैर,भारी मन से वापस बाइक की ओर लौटने लगा, फिर कुछ याद आया
"कार्तिक वह अम्मा रोज़ मुझे तमिल में कुछ कहती थी"
"ज़रा उस औरत से पूछो तो, क्या कहती थी" ?

कार्तिक वापस बाइक से उतर कर उस औरत के पास गया और  मेरी ओर इशारा करते हुए उससे तमिल में कुछ बात की

फिर वापस आकर बाइक पर बैठ गया,

"क्या कहा उसने , अम्मा रोज़ मुझे क्या कहती थी" ?
उसने मेरे कंधे को थपथपाते हुए  कहा

"कुछ नहीं, वह बस ये कहती थी कि"

""बेटा मंदिर में फूल चढ़ाना, तुम्हारी माँ को अच्छा लगेगा .."

#mbaria
13 अक्टूबर 2018





Saturday, March 24, 2018

लैपटॉप, पर्दा और चार दोस्त ...

एक लोहे की सलाखों वाली खिड़की है, जिस पर एक पुरानी चद्दर लगी हुई है, उस फटी चद्दर को ये समझा कर वहां टांगा गया है कि वो पर्दा है। ये तथाकथित पर्दा खिड़की के ऊपरी दोनों कोने में लगी दो बड़ी छोटी जंग लगी कीलों पर किसी भीड़ से भरी लोकल ट्रेन में सफर कर रहे  एक मुम्बइये जैसे अपने दोनों हाथों पर लटका है ।

ज़मीन पर एक प्लास्टिक की चटाई बिछी है, जो करीब पाँच छह जगह पर सिगरेट के ठूंठों से जलाई गई है, ठीक बीच में एक हिंदी का उम्रदराज़ अख़बार सीना चौड़ा किये लेटा है, हिंदी के उम्रदराज़ अख़बारों की ये पुरानी आदत है कहीं भी फैल कर लेट जाते हैं। उसी अख़बार के ठीक बीच में एक स्टील का छोटा ग्लास बड़ी मुश्किल से अपना बैलेंस बनाए खड़ा हुआ है। एक चौथाई पानी से भरे इस स्टील के ग्लास में , सिगरेट के पाँच छह ठूठों की लाशें पड़ी हैं, जो फूल कर ऊपरी सतह पर तैर रहीं है, कुछ जली हुई माचिस की तीलियाँ भी हैं, जो इन लाशों के नीचे तले में पड़ी हैं , और वो जैसे शाम होती है ना, ठीक उसी तरह , वक़्त के साथ साथ पानी का रंग भी भूरे से और भूरा होता जा रहा है । ग्लास में अब भी इतनी जगह है कि लगभग और दस बारह ठूंठे आराम से आत्महत्या कर लें ।

इसी बिछे हुए अख़बार के एक कोने में कुछ तले हुए लावारिस मूंगफली के दाने पड़े हैं जिनके बदन पर एक बड़ा सा काला निशान है,ये सब अपने झुंड से बिछड़ गए हैं । इन दानों में कुछ नंगे हैं तो कुछ अब भी अपनी इज़्ज़त छिलके से बचाने की कोशिश में हैं । एक स्टील की घायल प्लेट भी हैं जिसमें मूँग दाल के कुछ दाने प्याज़ के टुकड़ों के साथ दोस्ती करने की कोशिश कर रहे हैं । कुछ साबूत प्याज़ भी हैं  जो चटाई की सरहद के पार घुसपैठ करने को तैयार खड़े हैं,सरहद पार करते ही  हलाल कर दिये जाएंगे । अंडों के छिलके पड़े हैं जो एक दूसरे की गोद में बैठ कर कम जगह में भी अडजस्ट कर रहे हैं। नमक और  लाल मिर्ची  की अधखुली पुड़ियाँ इन अंडों के छिलकों को अब तक सांत्वना दे रहीं है।
चटाई के बगल में एक दीवार है, चिप्स और कुरकुरे की कुछ महँगी खालें पड़ी हैं, एक नमकीन का पैकेट भी है,सी थ्रू ड्रेस वाला , बेशर्म पेट फुलाये चटाई की सरहद के पार ज़मीन पर पड़ा हुआ है, शायद अब तक किसी की नज़र ही नहीं पड़ी उस पर ।
चार ग्लास हैं  काँच के, अलग अलग आकार के कोई बड़ा कोई छोटा, कोई लंबा कोई मोटा, और हाँ एक स्टील का भी है। इन सभी ग्लासों के हलक में करीब 60 ml शराब पड़ी है जिसकी शादी कुछ ही देर पहले एक डुप्लीकेट मिनरल वाटर बोतल के ठंडे पानी से हुई है, स्टील के ग्लॉस में 60 ml से ज़्यादा शराब है, बाहर से कुछ नज़र नहीं आता ना इसलिए ज़्यादा ले ली गयी है, वो जैसे करप्शन होता है अपने देश में वैसे ही।उस घायल स्टील की प्लेट से कुछ दूर एक बर्फ़  की सफेद ट्रे पड़ी है जिसमें अपने अपने दड़बों में पड़े पड़े कुछ बर्फ़ के टुकड़े रो रहे हैं, इनमें से कुछ टुकड़े ग्लासों में हो रही उस शादी में अपना दम ख़म खपा रहे हैं।
सोड़ा की एक प्लास्टिक बोतल है, ग्लास में हो रही शराब और पानी की शादी में उसका बहुत बड़ा हाथ है, और इस बात की उसको इतनी खुशी है की, ज़मी पर लेटे लेटे अपने हाथ ऊपर किये नागिन डांस कर रही है  ।
एक पंखा छत पर घूम रहा है जो सिर्फ आवाज़ से ही अपने होने का एहसास दिला रहा है,सोड़े की बोतल द्वारा हो रहे उस नागिन डांस में उसका भी कुछ हाथ है। हवा बाज़ हैं दोनों के दोनों ।

दो सिगरेट के डब्बे पड़े हैं अलग अलग ब्रैंड के , एक अब भी साबुत है और दूसरे के लगभग तीन किरायेदार घर छोड़ कर जा चुके हैं।  एक  छोटी मगर दिलेर माचिस की डिबिया अकेले इन दो डब्बों को आँख दिखा रही है। स्त्री सशक्तिकरण का शायद इससे बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता। उस अख़बार, उस प्लेट ,उन ग्लासों के आस पास चार लोग बैठे हैं , चार दोस्त । कमरे में सिगरेट का धुआं भरा पड़ा है जो उस तथाकथित पर्दे को चकमा दे कर ज़रा ज़रा करके बाहर हो रहा है ।

बगल में एक लैपटॉप पड़ा है, जिसपर किसी की बेफवाई बयां करने वाला एक पुराना गाना चल रहा है, उन चारों में से एक दिलजला , शून्य में झांकता हुआ कश लगा रहा है, गाने के बोल सिर्फ वही सुन रहा है, बाकी तीन संगीत की दीवार पर बैठे हुए हैं। एक का ध्यान दूर पड़ी उस सस्ती शराब की बोतल पर है , जिसमे पड़ी शराब की मात्रा ये तय करेगी कि खाना कब शुरू करना है। दूसरा जो आर्थिक तौर पर थोड़ा कमज़ोर है अपने ज़हन में ये हिसाब लगा रहा है कि जो ख़र्चा हुआ है उसे चार बराबर भागों में बांटने के बाद, बाकी तीनों से उसे कितना कितना पैसा लेना है।  मैं चटाई के इक कोने में बैठा ये सब देख रहा हूं, हम चारों भी तो उन ग्लासों की तरह तो थे, एक दूसरे से एकदम अलग बिलकुल जुदा, फिर भी साथ साथ।
"ठक ठक ठक" दरवाज़े पर कोई आया है शायद, खाना आ गया होगा।  "ठक ठक ठक"

पलट कर देखा , टाई पहना एक वेटर खड़ा था। आस पास देखा, तो न वो कमरा था, न चटाई, न पंखा न वो खिड़की न चादर, न वो तीन दोस्त,  सिर्फ़ एक महंगा रेस्टॉरेंट था, अंधेरा अँधेरा सा था वहां।

वेटर चमड़े की चमकीली छोटी सी फ़ाइल में बिल लिए खड़ा था,
"Sir ..."

मैंने बिल हाथ में लिया

"ब्लैक लेबल 60 ml - two unit, 650 ml - soda one unit, Tax ...
total Rs,1420 "

मैंने उस बिल को करीब से देखा ,  उस चमड़े की फ़ाइल में 500 के तीन नोट डाले , कुर्सी से सटा लैपटॉप का काला बैग उठाया और जैकेट कंधे पर लटकाए बाहर निकल गया जैसे आया था वैसे ही ...

अकेले ...

जाते जाते मुड़ कर देखा तो उसी रेस्टॉरेन्ट की वो बड़ी खिड़की नज़र आई, सफ़ेद पर्दा बहुत सुंदर लग रहा था।

और हाँ अब लैपटॉप पर गाने नहीं बजते ...

#mbaria