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Thursday, November 8, 2012

आज हिसाब पूरा हो गया ....

बेंगलोर जा सकोगे ? बेंगलोर जा सकोगे ? मेरे कुछ कहने से पहले ही सवाल दो बार दोहराया जा चूका था , शाम का वक़्त था , मैं अपना लैपटॉप का बैग उठाये ऑफिस से निकल ही रहा था की  ये सवाल ऑफिस में गूँज उठा.  मुड कर मैं उस कैबिन  में चला गया जिधर से वो आवाज़ आई थी.

टिकिट कांच के टेबल पर पड़ी थी , नाम साफ़ अक्षरों में नज़र आ रहा था, चमचमाते काले अक्षर ये बता रहे थे की बस उस कागज़ ने अभी-अभी बगल में रखे उस  प्रिंटर से दूसरा जन्म लिया है . मुझे बता दिया गया की कल सुबह बेंगलोर जाना होगा , बहुत ज़रूरी काम आ पड़ा था. बहुत ज़रूरी काम, हर ऑफिस में  ये दो शब्द  "बहुत ज़रूरी " बहुत ज़रूरी होतें हैं. 
मैंने टिकिट को कांच के उस सख्त टेबल से अलग किया, उसकी हल्की हल्की गर्मी ने हाथों को एक अजीब सा एहसास दिया, ये एहसास की काम शायद वाकई ज़रूरी था. मैंने लैपटॉप के बैग की चैन सरकाई और उसे बैग में डाल कर घर की और निकल गया . 

बेंगलोर बदल चूका था काफी , पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा था अब , एअरपोर्ट से बहार निकलते ही पता चला की मेरा नाम लिखने का एक तरीका और भी है . खैर ये बात तो थी की एक अजीब सा लगाव सा उमड कर आ रहा था इस शहर से, मैं करीब बीस साल बाद लौटा था, बीस साल बाद .

आखरी बार जब यहाँ से निकला था तब इतना याद है की जब तक तीसरे स्टेशन पर कोल्ड ड्रिंक वाला नहीं आया था तब तक फूट फूट के रोया था , आखिर मुश्किल होता है शहर बदलना , दोस्त बदलना , घर बदलना .

बस अनायास ही मन हुआ की चलो क्यों ना  स्कूल की उस पुरानी इमारत को नज़दीक से देख कर गुजरा जाए,  फिर मौका कहाँ  मिलेगा . अगर घडी सच बोल रही थी , तो बारह बजे तक काम निपट जाना चाहिए , "ज़रूरी काम" . फिर काफी वक़्त होगा स्कूल की उस पुरानी इमारत को नज़दीक से निहारने की लिये .

ठीक बारह बज कर पंद्रह मिनट पर वो ज़रूरी काम ज़रूरी नहीं रहा,  मतलब की अब पूरा हो चूका था .  लिफ्ट से नीचे आते आते अजीब सी उत्सुकता हो रही थी, अगर उस टैक्सी वाले ने खाना खा लिया हो तो सीधा ही स्कूल की और चला जाऊँगा . लिफ्ट से निकलते ही, ड्राईवर सामने ही एक नर्म सोफे पर बैठा नज़र आया , कोई मोटी  सी अंग्रेजी मैगज़ीन हाथ में लिए तस्वीरों को घूर रहा था . मुझे देखते ही खड़ा हो गया , मानो जैसे की उसे कुछ मिनट पहले ही  मेरी मौत की खबर आ गयी थी और अब मैं उसके सामने खड़ा था .

"चलो एक जगह चलना है , खाना हो गया तुम्हारा " ?

" जी सर ...."

पता उसे मालुम था , जिस आसानी से वो गाडी इधर उधर मोड़ रहा था , उससे तो ऐसा लग रहा था की वो भी उसी स्कूल का पढ़ा हुआ है . बस करीब पंद्रह बीस मोड़ों के बाद , मुझे वो इमारत नज़र आयी, ठीक वैसी ही खड़ी  हुई, जैसे मैंने उसे आखरी बार देखा था , हाँ बस कुछ खिड़कियाँ नईं सी लग रहीं थी, कुछ पेड़ बड़े हो गए थे , और साइकिलों के साथ साथ कुछ मोटरसाइकिलें भी खड़ीं  थीं . मैं गाड़ी से उतर कर  गेट तक पहुंचा , बाउंड्री की दीवार का रंग बदल चूका था, याद नहीं आ रहा था की पहले किस रंग की थी, पर पहले वाला रंग  ही बेहतर था .

बस जैसे ही कदम गेट के अन्दर रखने वाला था की नज़र दायीं और गयी , एक बूढा सा शख्स दीवार से पीठ टिकाये बस गेट से कुछ ही दूर बैठा था . अचानक से न जाने कुछ याद आने लगा, कुछ तो जाना पहचाना सा मंज़र था वो . जिस जगह, जिस तरह से वो बैठा हुआ था उससे एसा लग रहा था की उसे पहले कहीं देखा है , तभी उसके सामने रखी  वो टोकरी नज़र आई .

 अरे ये तो वही अमरुद वाला है जो स्कूल के बाहर  बैठा करता था .  ठीक उसी जगह आज बीस साल बाद भी वो वहीँ बैठा था , बस वो अब पीठ टिका कर बैठा हुआ था , आखिर बीस साल जो बीत चुके थे , पीठ बूढी हो चली होगी  उसकी .

मुझे भी नहीं पता चला की कब मेरे कदम स्कूल की उस इमारत की तरफ जाते जाते रुके  और उस बूढ़े की और चल पड़े, बीते हुए स्कूल के वो दिन याद आने लगे, मानो जैसे कल की ही बात हो .

मुझे अब भी याद है ब्रेक में हम अपना टिफ़िन खाने के बाद उस अमरुद वाले के आस पास भीड़ लगा कर बैठ जाते थे . भीड़ लगाना इसलिए ज़रूरी था ताकी की हम में से कुछ लोग अमरुद चुरा सके . मुझे अब भी याद है हम लोग कम से कम दो तीन तो चुरा ही लेते थे . हल्की सी हंसी छा  गयी चेहरे पर , यह सब याद आने पर। कुछ पुराने दोस्त भी याद आ गए . चुराए हुए अमरूदों का  बाकायदा बटवारा किया जाता था , बस्ते  में पड़ी वो स्टील की स्केल चाक़ू का काम करती थी . वो बचपन की यादें , अमरुद चुराने फिर उसे बांटने के किस्से .... और न जाने क्या क्या .... कितनी मीठी यादें जुड़ीं थीं .

मैं जैसे ही उसके पास पहुँचा , उसने गरदन ऊपर  उठाकर मेरी ओर  देखा और हाथ में दो अमरुद  उठा कर मेरी और बढ़ा  दिए .

"अमरुद लोगे बेटा "

"बिलकुल ताज़े और मीठे हैं "

उसका चेहरा बिलकुल बदल चूका था , उसकी अधखुली आँखें ये बता रहीं थी की उन्हें अब ठीक से दीखता नहीं .
उसके कपड़ों का हाल भी अब पहले जैसा न था , बैठने में अब तकलीफ होने लगी होगी , इसलिए अब वो दीवार पर पीठ टिका कर बैठा हुआ था।  टोकरी भी शायद पहले वाली नहीं थी , इधर उधर से टूटी हुई थी , कपड़ों की कुछ रस्सियाँ बना कर उसने उस टोकरी की दरारें भर रखीं थी , उसकी हर चीज़ बदल चुकी थी , हर चीज़ बूढी हो चुकी थी , बीस साल जो बीत गए थे , बीस साल .......

बस अगर कुछ पहले जैसा था , तो वो अमरुद थे , अब भी उसी तरह उस टोकरी में पड़े हुए .

मैं भी तो बदल चूका था बीस साल में , कहाँ वो नेकर और गंदे जूते पहने हम उसके इर्द गिर्द घेरा बनाए रहते थे , और आज मैं एक महंगा कोट पहने हुए, एसी टैक्सी से उतर कर उसके सामने खड़ा था .पता नहीं क्यों लेकिन मुझे अब शर्म सी आने लगी .

" अरे बेटा सच में ताज़े हैं , चाहो तो चख कर भी देख लो "

उसने हाथ में पकडे हुए वो दो अमरूद थोड़े और ऊँचे किये, मेरे चेहरे की तरफ .

मुझे समझ नहीं आरहा था मैं क्या जवाब दूं .  मैं तो बस कुछ पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिए उसकी ओर  आया था , पर ऐसा लग रहा था मानो उन्ही पुरानी यादों  ने मुझे एक जोर का तमाचा जड़ दिया हो . मैं एक पैर मोड़ कर उसके सामने बैठ गया .

"बाबा , पहचाना मुझे  ? पर कैसे पहचानोगे , बहुत पुरानी बात है "

" खैर छोड़ो  जाने दो , आप कब से यहाँ पर हैं और अब धंधा कैसा चल रहा है "?

" कौन हो बेटा ?  ,तुम्हे पहले तो कभी नहीं देखा "

"ओह !! माफ़ करना  बेटा ,शायद देखा होगा ,पर अब आखें कमज़ोर हो चुकी हैं न, इसलिए कम दिखाई देता है "

" तुम ये अमरुद लो , बहुत मीठे हैं " 

वो अब भी मुझे अमरुद बेचने की कोशिश कर रहा था

मैं अमरुद की तरफ देख भी नहीं रहा था , उस बूढ़े के चेहरे से आँखें  हटाने की हिम्मत कैसे करता .

" बाबा रहते कहाँ हो , कितने साल से यहाँ पर आते  हो  "

सवाल बिलकुल सही था , पर ये सवाल शायद बीस साल पहले मुझे पूछना था ,

" बेटा  स्कूल के पीछे वो झुग्गी है न, वहीँ  रहता हूँ , और अब तो मुझे भी नहीं याद कितने साल हो गए "

" घर में कौन है , कोई बेटा वेटा  नहीं है क्या , अब भी अमरुद क्यों बेचते हो  ? " 

ये सवाल ज़हन में इसलिए आया क्यों की मैं खुद को अब उसका दोषी मान रहा था ,

" नहीं बेटा  हम दो ही हैं "

शायद वो अपनी पत्नी की बातें कर रहा था

" एक लड़का था .....  मगर ......."

वो चुप हो गया , मैं भी समझ गया , आगे कुछ पूछने की हिम्मत न जुटा  पाया

"बस बेटा  किसी तरह यहाँ तक पहुँच जाता हूँ , अब तो थक जाता हूँ , काफी वक़्त लग जाता है , अब शरीर में उतनी फुर्ती कहाँ , बस ये स्कूल के बच्चे आतें हैं , वही खरीद ले जातें हैं , काम चल जाता है"

मैंने टोकरी में देखा , बीस अमरुद से ज्यादा नहीं थे , और एक थैला सा पड़ा था बगल में उसमें कुछ बीस और होंगे . दो सौ रूपए से ज्यादा के नहीं होंगे , जाने क्या कमाता है , कैसे करता है गुज़ारा .

खुद को बहुत छोटा महसूस करने लगा था अब मैं , वो स्कूल की मीठी यादें अब कडवी लगने लगीं थी . ऐसा लग रहा था की मानो कोई पुरानी चोरी पकड़ी गयी हो , स्कूल की वो कहानियाँ जो बड़े चाव से आज भी मैं दोस्तों को सुनाया करता था , उन मीठी कहानियों के पीछे का कडवा सच आज मेर सामने था . असली कहानी तो उस बूढ़े के चेहरे पर लिखी हुई थी , जाने कितने अमरुद चुराए होंगे हमने , जाने कितने .....

मेरी आखों में पानी भर आया .

" बेटा सच में मीठे हैं , चख कर देख लो "

मैंने तुरंत अपनी शर्ट के बाजुओं से आँखें पोंछी , जेब से पर्स निकाल कर पाँच सौ रूपए का एक नोट उसके हाथ में दिया , और उसके हाथ से वो दो अमरुद ले लिए , वो दो अमरुद जो वो तब से हाथ में पकडे बैठा था .

वो उस नोट को अपने कंपकपाते हाथों से अपनी आखों के नज़दीक ले गया .

"बेटा कितने हैं ये  ? "

" बाबा सौ रूपए है , रख लो "

ये कह कर मैं खड़ा हो गया , एक अमरुद को दातों के बीच दबाते हुए वापस टैक्सी की ओर चल पड़ा .

" अरे रुको बेटा , हिसाब बाकी है "

अमरुद का स्वाद अब भी वैसा ही था , बीस साल पहले जैसा .

मैं पीछे मुड़ा , अमरुद चबाते हुए थोडा जोर से कहा

" आज हिसाब पूरा हो गया बाबा , हिसाब पूरा हो गया "

टैक्सी ड्राईवर ने मुझे आता देख , गाडी शुरू कर दी , मैं वापस एअरपोर्ट की तरफ निकल पड़ा .

मैं जानता था की , वो हिसाब मैं कभी पूरा नहीं कर सकूँगा , कभी नहीं ...

अमरुद गाडी की सीट पर पड़ा इधर उधर हिल कर मुझ पर हँस रहा था .....  शर्ट की दायीं बाज़ु अब भी गीली थी ......

हिसाब अब भी  अधूरा था ........ अधुरा ........