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Thursday, March 29, 2012

वो अब भी रोज़ आती है ...



चार बसें गुज़र चुकी थी...  जाने वो किसका इंतज़ार कर रही थी बस स्टॉप पर...
कुछ फटी पुरानी टिकटें ज़मीन पर लोटते हुए...बार बार  उसके पैरों को छुं रही थी...
मानो जैसे की उसे छेड़ रहीं हो.... हँस रही हो इस बात पे ... के उसे ये तक नहीं पता, की जाना कहाँ है ?

आस पास की भीड़ हर दस मिनट में अपना चेहरा बदल रही थी... हर बस के बाद  बस स्टॉप का  हुलिया बदल सा जाता, सड़क के उस ओर खड़े उन दो टेक्सी  वालों ने भी उम्मीद छोड़ दी थी ... इक नज़र भी न देखा था उसने उनकी तरफ.

सूरज ओर क्षितिज की दूरी, धीरे धीरे अब सिमटने लगी थी, फिर दूर से एक स्कूल की बस आती नज़र आयी. उसकी आँखें  तुरंत उस बस की ओर उठीं ,चेहरे के हाव भाव कुछ बदलने से लगे.
करीब पांच छह बच्चे, कुछ थके हारे से,पिख्रे बाल और धूल भरे जूते पहने .. बस से उतरे.
वो कुछ देर तक यूंही उन बच्चों को तांकती रही. फिर वापस हलके हलके क़दमों से वापस जाने लगी... न जाने कहाँ... ?


वो रोज़ इसी तरह,  बस स्टॉप पर खड़ी रहती ओर शाम को जब स्कूल के आने के बाद, वो जाने कहाँ गायब हो जाती.  ये सिलसिला रोज़ चलता...  रोज़.... बस रविवार को वो  नज़र नहीं आती.
मैं रोज़.. अपने घर की खिड़की से बस स्टॉप की उस छोटी सी दुनिया में होती हुई हलचलों को देखता.
मन में रोज़ ये ख़याल आता की ये सिलसिला कब तक चलेगा, ओर अहम् बात तो ये थी की कब से चल रहा था..?
फिर एक दिन मुझसे रहा नहीं गया, मैंने निर्णय लिया की आखिर कोई रोज़ इस तरह से...  रोज़.... ?? कैसे...? ओर क्यों??
अगले दिन ... सुबह मैं बस स्टॉप पर था, एक पुरानी पान की दूकान नज़र आयी, बस अभी अभी खुली थी, वो बूढ़ा टला खोल कर चाबी जेब में ही रख रहा था.
वो जो लड़की रोज़ यहाँ खड़ी रहती है,न किसी बस में कहीं जाती है... न कहीं इधर उधर... बस खड़ी रहती है दिन भरी.. आप जानते हैं ?
अरे साहब आपको कैसे पता.... तीन महीने से ये सिलसिला चल रहा है..... आज तक किसी ने नहीं पूछा... आप... ? आप जानते हैं उन्हें... ?
नहीं.. मैं नहीं जानता... पर कुछ दिनों से देख रहा हूं..  सोचा आज पता कर लूं.... कौन है ये लड़की..? ओर ये सब क्या है..? कुछ पता है आपको?
बूढ़ा कुछ देर तक चुप रहा, फिर बोला साहब.. तीन महीने पहले की बात है... ये लड़की रोज़ इस बस स्टॉप पर आती थी... अपने छोटे बच्चे के साथ... बड़ा ही सुन्दर बच्चा था साहब.रोज़.. स्कूल की बस में छोड़ने आती ओर शाम को फिर लेने आती... और एक दिन ... एक दिन... इसी बस स्टॉप पर... कहते कहते वो पान वाला बूढ़ा रुक गया..

बोला... साहब... गेंद उस पार गयी... और ...  वो बच्चा अपनी माँ से हाथ छुड़ा ... उस गेंद के पीछे दौड़ा....

बस ये कह के वो चुप हो गया.....

मुझसे भी कुछ कहा न गया....  मुझे मेरा जवाब मिल चुका था ..

एक माँ थी वो..... थी....  इस "थी" शब्द में जाने कितना दुख ... कितनी पीड़ा भरी हुई थी...

मैं अब भी रोज़... अभी खिड़की से उसको देखता हूं....  वो माँ अब भी उस स्कूल बस का इंतज़ार करती है....  अब भी... स्कूल के बच्चे अब भी वहीँ उतरतें हैं ... और वो स्कूल की पिली बस.. रोज़ आती है.... वो क्या सोचती है ... उसे कैसा लगता है.... यह शायद ... शब्दों में कहना कठीन होगा.....

शायद इतना कहना  काफी होगा... की वो अब भी रोज़ आती है उस बस स्टॉप पर...



Photo From: http://sitharasethumadhavan.wordpress.com/2010/10/

Tuesday, March 13, 2012

मैं इक सौ रूपए का नोट...



मैं ........ मैं  इक सौ रूपए का नोट...
मंदिरों में चढ़ा कभी...  मज़ारों की दुआ कभी...
किसी की मुठ्ठी... कभी की गरम...   कभी भरे किसी के जखम ....
खून बहाया.. कभी किसी का ....     कभी भरी किसी की चोट....
मैं ....... मैं  इक सौ रूपए का नोट...

गद्दों के नीचे किसी ने दबाया.... फटे बटुओं में कभी..  किसी ने छुपाया ...
बच्चों की फीस हुआ कभी.... सिगरेट का धुंआ कभी...
 मुनाफा बना कभी  किसी का... कभी किसी की खोट... 
मैं ....... मैं  इक सौ रूपए का नोट...

कुर्सी को कभी, किसी की  बचाया... रुकी फाइलों को कभी बढ़ाया...   
नेताओं की माला में लगा... वफ़ादारी किसी की.. किसी का दगा.. 
कभी दिलवाए टिकिट  किसी को..  कभी किसी तो वोट..
मैं ....... मैं  इक सौ रूपए का नोट...

गुल्लक में कभी किसी ने छुपाया... हवा में कभी किसी ने उड़ाया...
कभी बना किसी गरीब की दौलत... कभी  किसी शराबी की लत ..
कभी जूतों के तले.. किसी के....   कभी किसी के होंठ..  
मैं ....... मैं  इक सौ रूपए का नोट...

अर्थियों पर कभी किसी ने चढ़ाया .... कभी किसी  ने  जन्मदिन मनाया..
बारातों की झूठी शान कभी... .. अस्पतालों में बिकती जान कभी..
कभी दिलाई ज़िन्दगी किसको..... कभी किसी को मौत .... 
मैं ....... मैं  इक सौ रूपए का नोट...

बच्चों की कभी जिद की पूरी ......  किसी  माँ की कोई ख्वाहिश अधूरी.. 
दोस्तों का उधार कभी ...  रिश्तों का प्यार कभी... 
कभी रूखा सूखा चावल किसी का...  कभी बादाम अखरोट... 
मैं ....... मैं  इक सौ रूपए का नोट...

हाथों से  ही सफ़र गुज़रा है मेरा ...  सेठों ने पकड़ा कभी..कभी मजदूरों ने घेरा 
सीने  से लगाए... कभी कोई बुढिया बिचारी ...  कभी किसी की चमकती  अलमारी.. 
कभी किसी का रेशमी कुर्ता...   कभी पुराना कोट.. 
मैं ........ मैं  इक सौ रूपए का नोट...


फट गया हूँ इधर उधर से  अब....  पड़ा हूँ पुराने नोटों के ढेर में .. 
दो टुकड़े हो जाऊँगा .. अब ..... बस ज़रा सी देर में.. 

उन चमकतें महंगे बटुओं से दूर    .... बच्चों के हाथों में रहना चाहता हूँ.. 
खनकना चाहता हूँ उन  नादान जेबों में...  नोट बन कर फिर खामोश नहीं रहना चाहता हूँ..

इक दो रूपए का सिक्का बनना चाहता हूँ...
इक दो रूपए का सिक्का बनना चाहता हूँ...

Monday, March 12, 2012

पहले बनाया तुझको .. फिर दुनिया बसाई होगी ..

पहले बनाया तुझको .. फिर दुनिया बसाई  होगी .. 
तेरे लिए खुदा ने... दुनिया बनाई होगी...
जुल्फें उडें ये तेरी... हवा चलाई होगी...
बैठेगी तू सोचकर.. घाँसें बिछाई होंगी..
पहले बनाया तुझको .. फिर दुनिया बसाई  होगी .. 
तेरे लिए खुदा ने... दुनिया बनाई होगी...

उठे ये तेरी नज़रें पहाड़ बनाए होंगे..
झुके ये तेरी नज़रें बारिश गिराई होंगी...
देखे तुझे ये जहाँ.. रौशनी दिखाई होगी...
सपने देखे तू.. रातें ओढाई होंगी...
पहले बनाया तुझको .. फिर दुनिया बसाई  होगी .. 
तेरे लिए खुदा ने... दुनिया बनाई होगी...

 हाथों के लिए तेरे.. फूल खिलाए होंगे
हँसेगी तू जानकार  पंछी   उडाए होंगे 
आँखों के लिए तेरे तारे जलाए होंगे...
राहों में रौशनी हो .. चांदनी गिराई होगी...
पहले बनाया तुझको .. फिर दुनिया बसाई  होगी .. 
तेरे लिए खुदा ने... दुनिया बनाई होगी...

Sunday, March 4, 2012

कोर्ट की तारीख थी..


कोर्ट की तारीख थी... एक तारीख ही थी... 
एक ऐसी ही तारीख थी.... काफी साल बीत गए... उस कोफ़ी  की दूकान में ... 
एक छोटे से टेबल पर... हम मिले थे...
मैं वहाँ बैठे बैठे ये सोच रहा था ... की मैं जो कहूँगा ... सच कहूँगा... जाने बात कितनी दूर तक पहुंचे....  और हाँ... सच ही कहा था मैंने.... तुमसे.. 
इस तारीख पर भी मैंने कुछ ऐसा ही कहा... मैं जो कहूँगा सच कहूँगा... 
बात बहुत दूर तक आ चुकी थी अब...  बहुत दूर...
कोफ़ी की दूकान फिर से ज़हन में आने लगी....  मेनू हाथ में लिए.. जाने क्या सोच रही थी वो ...  
उसे  देखते देखते .... मैं ये भी भूल गया.. की वेटर पंद्रह मिनट से पूछने के लिए नहीं आया...
मेरी आदत थी गिलास से टक  टक  करने की टेबल पर....  टक टक टक... वेटर ने अब भी शायद सुना नहीं.... टक टक टक... 
 फिर ध्यान आया की आवाज़ गिलास की नहीं हैं ... मैं  कोर्ट में हूँ.... 
वो आवाज़... उस हथोड़े की थी... जो जज साहब ... मेरा ध्यान खींचने के लिए.. लकड़ी के उस मेज़ पर पटक रहे थे.... 
न वेटर था.. न मेनू.... न  काँच  का वो खाली गिलास...  
हाँ वो थी.. बिलकुल मेरे बगल में खड़ी हुई....  कोर्ट की तारीख थी.... एक तारीख ही तो थी....