कल एक किसान ने आत्महत्या कर ली , या यूं कहिए फिर आत्महत्या कर ली। हमे अब ऐसी खबरों की आदत हो गयी है , रोज़ टीवी, पर, अख़बारों में देखते हैं पढ़ते हैं, नया क्या है ? कुछ भी तो नहीं । पर इस बार कुछ अलग हुआ, आपके हमारे सभी के सामने हुआ, वो हम सब के सामने लटक कर मर गया, जी हाँ हम सब, जो टीवी पर थे, जो अखबार पढ़ रहे थे, जो सोशल मीडिया पर थे। सिर्फ वो रैली की भीड़ नहीं थी, हम सब थे, मूक बधिर बने हुए हम सब।
कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहें है की, वो किसान नहीं था, उसने अच्छे कपड़े पहन रखे थे, उसका पगड़ी बाँधने का बिज़नेस था, उसके पास एक गाडी थी, यहाँ तक की उसकी एक वेबसाइट भी थी, वो किसान नहीं था। सही तो है, किसान तो वो होता है, जिसने मैले फटे मिट्टी से सने कपड़े पहन रखें हो, एक पुरानी सी पगडी हो और पैर में रबर के काले फटे हुए जूते हो, तब ही वो किसान माना जाएगा। भारत में किसान को कोई हक़ नहीं है की वो अच्छे कपडे पहने, गाडी रखे या कुछ और करे, ये सब चीज़ें हमारे आपके लिए है किसान पर ये सब नहीं जचता। हमने बचपन में भी कहानीयों में यही तो पढ़ा है "एक गरीब किसान" "एक बेचारा किसान" वगेरह वगेरह। हमने अपने ज़हन में किसान की एक छवि बनी बना रखी है, जो बदलती नहीं , या शायद हम बदलना ही नहीं चाहते।
यहाँ कोई बॉलीवुड हस्ती, कोई नेता अपना फार्म हाउस बना कर खुद को किसान तो बता सकता है पर अगर कोई किसान उनकी तरह ज़रा सा भी कुछ कर दे तो वो किसान नहीं ?? कैसा न्याय है ये ?
गजेन्द्र ने अच्छे कपड़े पहन रखे थे, इसलिए उस पर उँगलियाँ उठ रही है, इस देश में किसान गरीब ही दिखे तो अच्छा है ,कम से कम किसान तो कहा जाएगा,वरना ये नाम भी हम आप उससे छीन लेंगे, जैसा गजेन्द्र से छीन रहें है।
कल के हादसे पर कुछ लोग तो यहाँ तक आंकलन कर रहें है की गजेन्द्र सिर्फ ड्रामा कर रहा था, वो आत्महत्या नहीं करना चाह रहा था। उसकी मौत सिर्फ एक हादसा थी । कैसी संवेदनहीनता है ये ? ये क्या हो गया है हम लोगों को ? एक किसान अपनी जान से गया है और हम उसे मरने के बाद भी न जाने कितनी बार मार रहें हैं। मौत, मौत होती है , मौत दुखद होती है, मौत में पीड़ा होती है फ़िर वो चाहे किसी की भी हो। जंग में भी अगर दुश्मन मारा जाए तो जीत का जश्न मनाया जाता है, दुश्मन की मौत का नहीं, और गजेन्द्र कोई दुश्मन तो नहीं था, एक किसान था इस देश का ।
आपने कभी गौर किया है, हम लोग अक्सर जब मॉल के सुपर बाज़ार में जातें हैं, किराने का सामान और सब्जियाँ लेने। ऐसी की ठंडी हवा में उस चमचमाती रौशनी में दाल, चावल और सब्ज़ियाँ बहुत सुन्दर दिखती हैं, ये वही चीज़ें हैं जो किसान भरी धूप में कड़ी मेहनत कर अपने खेतों में उगाता है। ट्यूबलाइट की उस सफ़ेद रौशनी में सब्जियाँ तो खूब चमकतीं हैं पर उस किसान का पसीना कहीं दिखाई नहीं देता और अगर गलती से गाँव का कोई किसान उस मॉल में आ जाए तो हम लोगों को ऐसा लगता है की कोई गाँव का गवार आ गया इतने बड़े मॉल में।
खैर जाने दीजिये , ये बताइये आईपीएल में क्या चल रहा है, किसान और फ़ौज़ी तो रोज़ मरते रहते हैं।
कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहें है की, वो किसान नहीं था, उसने अच्छे कपड़े पहन रखे थे, उसका पगड़ी बाँधने का बिज़नेस था, उसके पास एक गाडी थी, यहाँ तक की उसकी एक वेबसाइट भी थी, वो किसान नहीं था। सही तो है, किसान तो वो होता है, जिसने मैले फटे मिट्टी से सने कपड़े पहन रखें हो, एक पुरानी सी पगडी हो और पैर में रबर के काले फटे हुए जूते हो, तब ही वो किसान माना जाएगा। भारत में किसान को कोई हक़ नहीं है की वो अच्छे कपडे पहने, गाडी रखे या कुछ और करे, ये सब चीज़ें हमारे आपके लिए है किसान पर ये सब नहीं जचता। हमने बचपन में भी कहानीयों में यही तो पढ़ा है "एक गरीब किसान" "एक बेचारा किसान" वगेरह वगेरह। हमने अपने ज़हन में किसान की एक छवि बनी बना रखी है, जो बदलती नहीं , या शायद हम बदलना ही नहीं चाहते।
यहाँ कोई बॉलीवुड हस्ती, कोई नेता अपना फार्म हाउस बना कर खुद को किसान तो बता सकता है पर अगर कोई किसान उनकी तरह ज़रा सा भी कुछ कर दे तो वो किसान नहीं ?? कैसा न्याय है ये ?
गजेन्द्र ने अच्छे कपड़े पहन रखे थे, इसलिए उस पर उँगलियाँ उठ रही है, इस देश में किसान गरीब ही दिखे तो अच्छा है ,कम से कम किसान तो कहा जाएगा,वरना ये नाम भी हम आप उससे छीन लेंगे, जैसा गजेन्द्र से छीन रहें है।
कल के हादसे पर कुछ लोग तो यहाँ तक आंकलन कर रहें है की गजेन्द्र सिर्फ ड्रामा कर रहा था, वो आत्महत्या नहीं करना चाह रहा था। उसकी मौत सिर्फ एक हादसा थी । कैसी संवेदनहीनता है ये ? ये क्या हो गया है हम लोगों को ? एक किसान अपनी जान से गया है और हम उसे मरने के बाद भी न जाने कितनी बार मार रहें हैं। मौत, मौत होती है , मौत दुखद होती है, मौत में पीड़ा होती है फ़िर वो चाहे किसी की भी हो। जंग में भी अगर दुश्मन मारा जाए तो जीत का जश्न मनाया जाता है, दुश्मन की मौत का नहीं, और गजेन्द्र कोई दुश्मन तो नहीं था, एक किसान था इस देश का ।
आपने कभी गौर किया है, हम लोग अक्सर जब मॉल के सुपर बाज़ार में जातें हैं, किराने का सामान और सब्जियाँ लेने। ऐसी की ठंडी हवा में उस चमचमाती रौशनी में दाल, चावल और सब्ज़ियाँ बहुत सुन्दर दिखती हैं, ये वही चीज़ें हैं जो किसान भरी धूप में कड़ी मेहनत कर अपने खेतों में उगाता है। ट्यूबलाइट की उस सफ़ेद रौशनी में सब्जियाँ तो खूब चमकतीं हैं पर उस किसान का पसीना कहीं दिखाई नहीं देता और अगर गलती से गाँव का कोई किसान उस मॉल में आ जाए तो हम लोगों को ऐसा लगता है की कोई गाँव का गवार आ गया इतने बड़े मॉल में।
खैर जाने दीजिये , ये बताइये आईपीएल में क्या चल रहा है, किसान और फ़ौज़ी तो रोज़ मरते रहते हैं।
3 comments:
बहुत खूब लिखा.....शब्दों में अनुभव साफ़ झलकता दिखा....
क्या लिखूं? आज ही किसे दोस्त ने बताया आपके ब्लॉग के बारे में. स्तब्ध रह गया आपकी कहानिया पढ़कर. ढूंढ़ रहा हु आपको की आपके टच में रहने के लिए.
ऐसे ही लिखते रहिये. बस हम पढ़ने वालो का जीवन सार्थक हो जाये.
ये कहानिया नही हैं ये आइना हैं हमारे जीवन का. घटना तो हमारे आस पास भी होती हैं लेकिन बस फर्क इतना है की जीवन की भागदौड़ में हम लोग महसूस ही नहीं कर पाते,
ये बहाना नही दूंगा की बहुत व्यस्त है जीवन. बस इतना कहूँगा की वो भावनाए ही नही रह गयी हैं शायद.
Keep the fight up.. Lets put more pressure on System to perform..
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