मैंने जब भी घर से बाहर कदम रखा है तो देखा है
पल्लू उँगलियों में दबाये, तेरे हाथ आँख मल रहे थे
दिवाली होली पर जब हम खोये रहे अपनी मस्तियों में
रसोई में हाथ उसके, गुजिए तल रहे थे
तुम ना जाने कब के सो गए थे उसकी गोद में
उसके हाथ तुम्हारे पीठ पर, तब भी चल रहे थे
कल जब मैं भीड़ में अकेला चल रहा था माँ
पैरों को जाने क्यों, रास्ते खल रहे थे
तेरा हाथ सर पर रहता है तो रौशनी सी रहती है
वरना रोज़ सूरज डूबता था, रोज़ दिन ढल रहे थे
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6 comments:
It's beautiful :)... after reading this poem.. remembering my mom now :).. Missing her dearly!!!
बहुत ही मार्मिक
@PuraneeBastee
मस्त लिखा है मिथिलेष साब
Bahuuuut khoob likha h
Guru You are Superb .. Har lafz sach hai #Speechless
aah mithilesh ji, wah mithilesh ji.
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