तीन दिन हो गए थे "थ्री इडियट्स" देखे हुए , रात को ठीक से अब भी नींद नहीं आ रही थी। जैसे ही आँखें बंद होती, उसका चेहरा सामने आ जाता, चाय के तीन गिलास हाथ में, एक फटी पुरानी सी बनियान और खाकी हाफ पैंट।
हाँ, वो था हमारा मिलीमीटर, बहुत याद करने पर भी उसका नाम याद नहीं आ रहा था, मुझे अगर कुछ याद था तो वो था "छोटू" ।
"छोटू"... दो अक्षर के इस "छोटू" के पीछे उसकी सारी कहानी, उसकी सारी शक्शियत, उसका नाम, सब छुप गया था, और अगर कुछ बचा था तो वो था "छोटू"।
मैं हैरान हूँ, चार साल तक मुझे इस बात का एहसास तक नहीं हुआ, वो चार साल जिसमे शायद ही किसी दिन उसके हाथ की चाय न पी हो। चार साल..... कुछ शर्म सी महसूस होने लगी थी, की एक फ़िल्म देखने के बाद मुझे ये एहसास हुआ, पर शायद डेढ़ सौ रूपए की उस टिकट ने मुझे एहसास करा दिया था की मैं कितना कंगाल था। हाँ कंगाल ही तो, चार साल लगे इंजीनियर बनते बनते, नौकरी, कार, घर सब कुछ तो था मेरे पास, पर कुछ ऐसा भी था जो मेरे पास आज तक नहीं था। तय कर लिया की अब कुछ कदम वापस लौट के जाना होगा, कुछ जवाब देने होंगे, रात में चैन से सोना जो था।
दूकान ठीक वैसी ही थी, लकड़ी की बेंच भी वही, और काँच के पीछे वो बिस्कुट के पैकेट अब भी वैसे ही पड़े हुए थे। मैं उसे इधर उधर ढूढ़ते ढूंढते अपनी उसी पुरानी बेंच पर बैठ गया, बेंच वही थी पर अब कुछ कमज़ोर सी हो चुकी थी, हिलने लगी थी। वो काला निशान, जो सिगरेट जलाते हुए गिरी माचिस की तीली से हुआ था, अब भी था, मैंने चार उँगलियों से उस निशान पर हल्का सा हाथ फेरा। कुछ चीज़ें शायद हमेशा के लिए रहतीं हैं।
आसपास कुछ लड़के बैठ कर चाय पी रहे थे, चाय का ग्लास अब थोड़ा छोटा हो चूका था, हाँ पर रंग वही था।मगर वो चाय पिलाने वाला, वो चाय पिलाने वाला छोटू कहीं नज़र नहीं आ रहा था।
फिर देखा, जहां उस दूकान का मालिक बैठा करता था वहाँ एक १६-१७ साल का लड़का बैठा हुआ था, चेहरा वैसा ही था , हाँ हल्की हल्की सी ढाढ़ी मूछें निकल आयी थी। बैठे बैठे कुछ हिसाब लिख रहा था शायद, ये वही था, वही। मैं उठ कर उसकी और बढ़ा।
"पहचाना मुझको" ?
उसने गर्दन उठा कर मेरी और देखा, कुछ देर सोचता रहा।
साहब आप !!! आप आज इधर !! इतने दिनों बाद !!! एक बार गए फ़िर लौटे ही नहीं ,आज इधर कैसे साहब !!
"आइये आइये , बैठिये ना " !!
वो अपनी कुर्सी से उठा और मुझे वहाँ बैठने का इशारा करने लगा।
"अरे नहीं नहीं बैठो "
न मैं उसे अब छोटू बोल सकता था, न मुझे उसका नाम मालूम था, फिर भी हिम्मत कर के मुँह से निकल ही गया।
" कैसे हो छोटू ? , बहुत बड़े हो गए हो ? "लगता है दूकान भी तुम ही संभाल रहे हो ?"
"जी साहब कुछ ऐसा ही समझ लीजिये"
मैं अब भी सोच रहा था की उससे उसका नाम पूछूँ या नहीं। । पर … ??
फ़िर उससे उसकी कहानी सुनी की किस तरह वो आज उस कुर्सी पर बैठा है , किस तरह अब लोग पहले की तरह चाय नहीं पीते, कॉफ़ी भी चलने लगी है , महँगाई , उधारी और न जाने क्या क्या।
वो बोले ही जा रहा था जैसे इससे पहले उसे ये सब बातें, किसी को बताने का मौका नहीं मिला था, या यूं कहिए बताने के लिए कोई मिला ही नहीं था।
मैं उसे रोकना चाह रहा था, उसे बताना चाह रहा था की मैं उसका शुक्रिया अदा करने आया था, उसे कुछ जवाब देने आया था।
"छोटू" … "छोटू" सही नहीं था , चार साल तक वो छोटू ही रहा।
मेरे ज़हन में ये सब बातें चल रहीं थी की वो अचानक बोलते बोलते रुक गया।
"अरे साहब !! आपको चाय पूछना ही भूल गया।
पी कर देखिये, आज भी पहले जैसी ही है।
उसने गर्दन टेढ़ी की , अपना दायां हाथ ऊपर उठा कर हिलाया और ज़ोर से चिल्लाया
"छोटू !! दो चाय लाना। … स्पेशल !!
मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी, मेरे हाथ पैर सुन्न पड़ गए , ज़हन में जो बातें चल रहीं थी एक झटके के साथ रुक गयीं। एक सन्नाटा सा छा गया मेरे चारोँ और , मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था , उस "छोटू" शब्द के बाद सब शांत हूँ चूका था। सब।
फिर वो छोटू आया, नया छोटू। दो चाय के ग्लॉस ले कर , फटी पुरानी हॉफ पैंट , एक बड़ी ढ़ीली ढ़ाली शर्ट और पतले से हाथ और लम्बे बाल। ये छोटू थोड़ा अलग था पर था छोटू ही, उसने मेरे सामने चाय का ग्लॉस रख दिया , मैंने नज़रें उठाई , उसकी आँखों में देखा। वो कुछ देर मेरी ओर देखता रहा फिर मुड़ कर चला गया। कपड़े उसके फटे थे पर नंगा मैं महसूस कर रहा था।
चाय बहुत फीकी फीकी सी लगी , और ठंडी भी।
मैं इतनी दूर एक जवाब देने आया था , पर अब ना जाने कितने सवाल खड़े हो चुके थे।
कौन हैं ये छोटू ? कहाँ से आतें हैं और कहाँ चले जातें हैं ?
छोटू बड़े तो हो जातें हैं , पर फ़िर उनकी जगह नये छोटू ले लेते हैं।
ये वो छोटू हैं , जो उस चाय की दूकान पर हमे चाय पिलाते हैं ,
हमे सिगरेट जलाने के लिए माचिस ला कर देते हैं.
ये वो छोटू हैं , जो रोज़ सुबह आपके दरवाज़े के नीचे से अखबार सरका जातें हैं ,
ये वो छोटू हैं जो इमारत के नीचे आपकी गाड़ी धोते हैं
ये वो छोटू हैं , जो रेस्टोरेंट में आपके टेबल पर बिसलेरी की बोत्तल रख जातें हैं,
ये वो छोटू हैं जो उस पेड़ के नीचे आपको मस्का बन और ऑमलेट खिलाते हैं,
ये वो छोटू हैं तो आपके बगल में टिश्यू पेपर का वो बॉक्स पहुँचाते हैं
ये वो छोटू हैं जो आपके बियर के ग्लास के बगल में भुनी हुई मूंगफली रख जातें हैं ,
ये वो छोटू हैं जो किसी ढ़ाबे के पीछे आपको बर्तन चमकाते हैं,
ये वो छोटू हैं जो किसी मैकेनिक के गैरेज में काले मैले हाथों से रोज़ टॉयर बदलते हैं,
ये वो छोटू हैं , जो कभी बड़े नहीं होते।
सच तो ये है की, हम इस छोटू को कभी बड़ा होने ही नहीं देते, कभी बड़ा होने नहीं देते।
Pic From : http://yogilightbox.files.wordpress.com/2012/08/dsc_0491.jpg
हाँ, वो था हमारा मिलीमीटर, बहुत याद करने पर भी उसका नाम याद नहीं आ रहा था, मुझे अगर कुछ याद था तो वो था "छोटू" ।
"छोटू"... दो अक्षर के इस "छोटू" के पीछे उसकी सारी कहानी, उसकी सारी शक्शियत, उसका नाम, सब छुप गया था, और अगर कुछ बचा था तो वो था "छोटू"।
मैं हैरान हूँ, चार साल तक मुझे इस बात का एहसास तक नहीं हुआ, वो चार साल जिसमे शायद ही किसी दिन उसके हाथ की चाय न पी हो। चार साल..... कुछ शर्म सी महसूस होने लगी थी, की एक फ़िल्म देखने के बाद मुझे ये एहसास हुआ, पर शायद डेढ़ सौ रूपए की उस टिकट ने मुझे एहसास करा दिया था की मैं कितना कंगाल था। हाँ कंगाल ही तो, चार साल लगे इंजीनियर बनते बनते, नौकरी, कार, घर सब कुछ तो था मेरे पास, पर कुछ ऐसा भी था जो मेरे पास आज तक नहीं था। तय कर लिया की अब कुछ कदम वापस लौट के जाना होगा, कुछ जवाब देने होंगे, रात में चैन से सोना जो था।
दूकान ठीक वैसी ही थी, लकड़ी की बेंच भी वही, और काँच के पीछे वो बिस्कुट के पैकेट अब भी वैसे ही पड़े हुए थे। मैं उसे इधर उधर ढूढ़ते ढूंढते अपनी उसी पुरानी बेंच पर बैठ गया, बेंच वही थी पर अब कुछ कमज़ोर सी हो चुकी थी, हिलने लगी थी। वो काला निशान, जो सिगरेट जलाते हुए गिरी माचिस की तीली से हुआ था, अब भी था, मैंने चार उँगलियों से उस निशान पर हल्का सा हाथ फेरा। कुछ चीज़ें शायद हमेशा के लिए रहतीं हैं।
आसपास कुछ लड़के बैठ कर चाय पी रहे थे, चाय का ग्लास अब थोड़ा छोटा हो चूका था, हाँ पर रंग वही था।मगर वो चाय पिलाने वाला, वो चाय पिलाने वाला छोटू कहीं नज़र नहीं आ रहा था।
फिर देखा, जहां उस दूकान का मालिक बैठा करता था वहाँ एक १६-१७ साल का लड़का बैठा हुआ था, चेहरा वैसा ही था , हाँ हल्की हल्की सी ढाढ़ी मूछें निकल आयी थी। बैठे बैठे कुछ हिसाब लिख रहा था शायद, ये वही था, वही। मैं उठ कर उसकी और बढ़ा।
"पहचाना मुझको" ?
उसने गर्दन उठा कर मेरी और देखा, कुछ देर सोचता रहा।
साहब आप !!! आप आज इधर !! इतने दिनों बाद !!! एक बार गए फ़िर लौटे ही नहीं ,आज इधर कैसे साहब !!
"आइये आइये , बैठिये ना " !!
वो अपनी कुर्सी से उठा और मुझे वहाँ बैठने का इशारा करने लगा।
"अरे नहीं नहीं बैठो "
न मैं उसे अब छोटू बोल सकता था, न मुझे उसका नाम मालूम था, फिर भी हिम्मत कर के मुँह से निकल ही गया।
" कैसे हो छोटू ? , बहुत बड़े हो गए हो ? "लगता है दूकान भी तुम ही संभाल रहे हो ?"
"जी साहब कुछ ऐसा ही समझ लीजिये"
मैं अब भी सोच रहा था की उससे उसका नाम पूछूँ या नहीं। । पर … ??
फ़िर उससे उसकी कहानी सुनी की किस तरह वो आज उस कुर्सी पर बैठा है , किस तरह अब लोग पहले की तरह चाय नहीं पीते, कॉफ़ी भी चलने लगी है , महँगाई , उधारी और न जाने क्या क्या।
वो बोले ही जा रहा था जैसे इससे पहले उसे ये सब बातें, किसी को बताने का मौका नहीं मिला था, या यूं कहिए बताने के लिए कोई मिला ही नहीं था।
मैं उसे रोकना चाह रहा था, उसे बताना चाह रहा था की मैं उसका शुक्रिया अदा करने आया था, उसे कुछ जवाब देने आया था।
"छोटू" … "छोटू" सही नहीं था , चार साल तक वो छोटू ही रहा।
मेरे ज़हन में ये सब बातें चल रहीं थी की वो अचानक बोलते बोलते रुक गया।
"अरे साहब !! आपको चाय पूछना ही भूल गया।
पी कर देखिये, आज भी पहले जैसी ही है।
उसने गर्दन टेढ़ी की , अपना दायां हाथ ऊपर उठा कर हिलाया और ज़ोर से चिल्लाया
"छोटू !! दो चाय लाना। … स्पेशल !!
मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी, मेरे हाथ पैर सुन्न पड़ गए , ज़हन में जो बातें चल रहीं थी एक झटके के साथ रुक गयीं। एक सन्नाटा सा छा गया मेरे चारोँ और , मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था , उस "छोटू" शब्द के बाद सब शांत हूँ चूका था। सब।
फिर वो छोटू आया, नया छोटू। दो चाय के ग्लॉस ले कर , फटी पुरानी हॉफ पैंट , एक बड़ी ढ़ीली ढ़ाली शर्ट और पतले से हाथ और लम्बे बाल। ये छोटू थोड़ा अलग था पर था छोटू ही, उसने मेरे सामने चाय का ग्लॉस रख दिया , मैंने नज़रें उठाई , उसकी आँखों में देखा। वो कुछ देर मेरी ओर देखता रहा फिर मुड़ कर चला गया। कपड़े उसके फटे थे पर नंगा मैं महसूस कर रहा था।
चाय बहुत फीकी फीकी सी लगी , और ठंडी भी।
मैं इतनी दूर एक जवाब देने आया था , पर अब ना जाने कितने सवाल खड़े हो चुके थे।
कौन हैं ये छोटू ? कहाँ से आतें हैं और कहाँ चले जातें हैं ?
छोटू बड़े तो हो जातें हैं , पर फ़िर उनकी जगह नये छोटू ले लेते हैं।
ये वो छोटू हैं , जो उस चाय की दूकान पर हमे चाय पिलाते हैं ,
हमे सिगरेट जलाने के लिए माचिस ला कर देते हैं.
ये वो छोटू हैं , जो रोज़ सुबह आपके दरवाज़े के नीचे से अखबार सरका जातें हैं ,
ये वो छोटू हैं जो इमारत के नीचे आपकी गाड़ी धोते हैं
ये वो छोटू हैं , जो रेस्टोरेंट में आपके टेबल पर बिसलेरी की बोत्तल रख जातें हैं,
ये वो छोटू हैं जो उस पेड़ के नीचे आपको मस्का बन और ऑमलेट खिलाते हैं,
ये वो छोटू हैं तो आपके बगल में टिश्यू पेपर का वो बॉक्स पहुँचाते हैं
ये वो छोटू हैं जो आपके बियर के ग्लास के बगल में भुनी हुई मूंगफली रख जातें हैं ,
ये वो छोटू हैं जो किसी ढ़ाबे के पीछे आपको बर्तन चमकाते हैं,
ये वो छोटू हैं जो किसी मैकेनिक के गैरेज में काले मैले हाथों से रोज़ टॉयर बदलते हैं,
ये वो छोटू हैं , जो कभी बड़े नहीं होते।
सच तो ये है की, हम इस छोटू को कभी बड़ा होने ही नहीं देते, कभी बड़ा होने नहीं देते।
Pic From : http://yogilightbox.files.wordpress.com/2012/08/dsc_0491.jpg
28 comments:
ये वो छोटू हैं , जो कभी बड़े नहीं होते।
Iswar ne aapko drishti di hai, aap natural likhte gain aur aap un seemaon se nhi bndhe ho ki ak kahani ka ant aisa hona chahiye.
Salute!! @bhati_m
छोटू अर्थशास्त्र का हिस्सा है । और जबतक है तबतक मुलाकात होती रहेगी ।
very nice observation!! Every movie gives some food to our mind.. Some ignore, some think and some write.. Very well written!! :)
अन्दर झाँकने की बहुत बढ़िया कोशिश की है आपने l
अन्दर झाँकने के चक्कर में कहिन इतना न झुक जाऊं की अंदर ही न गिर पडू l यही सोच कर चलते चलते जितना दिख जाता है उतना ही देख कर चलता बनता हूँ, कहिन ज्यादा देख लिया तो कई सवाल दिमाग में फुदकने लगेंगे और ये भी सोचता हूँ की सब मेरे जैसा सोचेंगे तो फिर मदद कौन करेगा l
Suprb
Mithilesh I am a great fan of yours and tumhara khasiyat yeh haii that you always give me something to think !! Likhte Raho .. you do not know how many people read your posts and are enriched by it :)
बहुत खूब .... दिल को छु गयी आपकी ये कहानी ।।
छोटू एक बच्चा नहीं, एक आइना हैं हमारे गिरते हुए सामाजिक मापदंडों का और एक वीभत्स चेहरा है हमारी झूठी सभ्यता का. आप तो थ्री इडियट्स देख के ये समझ गए, मुझे तो आपकी ये पोस्ट पढ़नी पढ़ गयी.. वैसे तारे जमीन पर में भी एक छोटू था....
""Chotu""
Amazing
I hv nothing to write
Nothing to say.......!
Nice story
Nice story
Kya baat...kya soch...speechless...is soch ko slaam (y)
Very well ......
अपने आस पास की कहानी..
काश कुछ कहने को अल्फाज बचे होते तो जरुर लिखते" ___________________"
दुःख की बात ये है प्रायः बालमजदूरी के खिलाफ बोलने वाले लोग भी छोटू के हाथ से चाय पिटे रहते है
@PuraneeBastee
आज बहुत दिनो के बाद मेरी आखो मै पानी है...
सादर नमन...............
Smaj ka kadba sach Jo ham roj dekhte hain lekin keval sochte hain much karte nahi
Smaj ka kadba sach Jo ham roj dekhte hain lekin keval sochte hain much karte nahi
Very emotional story .. and real. Keep writing .
आपने कुछ लिखना सिखा दिया!!! शुक्रिया
https://khaanfaraaz.blogspot.in/
बहुत खूब लिखा है आपने
आज हिंदुस्तान की यही त्रासदी है कि जो जमीन पर काम करते हैं उन्हें नीचा दिखाया जाता है और जो Hippocrates हैं उन्होंने पैसे ,पावर, को बंधक बना लिया है और खुद को मसीहा स्थापित कर लिया है
आज हिंदुस्तान की यही त्रासदी है कि जो जमीन पर काम करते हैं उन्हें नीचा दिखाया जाता है और जो Hippocrates हैं उन्होंने पैसे ,पावर, को बंधक बना लिया है और खुद को मसीहा स्थापित कर लिया है
Heart touching story bro
बहोत हृदयस्पर्शी
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