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Saturday, November 24, 2018

सूखा पेड़

आंगन के बीच लगा वो पेड़ अब लगभग सूख चुका था।  माँ को कितनी बार कहा था, अगर ठीक से उग नहीं रहा है तो कटवा दो। 
रेणु टीचर भी कहती थी कि घर के  आंगन में सूखा पेड़ शुभ नहीं होता । पर ताज्जुब तो ये था की अब भी उसकी कुछ पत्तियां बची कैसे हैं ?
मैं घर के पीछे, आंगन में बैठे बैठे धूप सेंकते हुए ये  सोच रहा था। बहुत दिनों बाद छुट्टियों पर घर लौटा था।

"सूख गया है, उखाड़ क्यों नहीं देता " ?

माँ रसोई से चिल्लाई,
माँ रसोई में दोपहर का खाना पका रही थी, तभी अचानक आंगन के दरवाज़े को किसी ने ज़ोर से धक्का दे कर खोल दिया ।  वह सीधा अंदर घुस गया, फटे कपड़े, बाल धूल भरे  लंबे और गले में न जाने कितनी मालाएँ थी, कुछ छोटी कुछ लंबी। एक हाथ में पुराना स्टील का डिब्बा था , हैंडल वाला। वो जैसे दूधवाले लाते हैं ना वैसा पर उस पर ढ़क्कन नहीं था। दूसरे हाथ में अलमुनियम के फॉयल में लिपटा कुछ बासी खाना था, जिसे वो मुठ्ठी में जकड़े हुए था ।

"अरे कौन हो ? , जाओ भागो " !

" ऐसे घर में क्यों घुस रहे हो" ?

मैंने तुरंत खड़े होते हुए कहा।
मैंने एक कदम आगे बढ़ाया, उसने भी अपना हाथ आगे बढ़ा दिया,  वो हाथ जिसमें उसने बासी खाना पकड़ रखा था।

"कुछ नहीं है, चले जाओ "

उसने हाथ नीचे कर लिया, मेरी ओर देखा, फिर से हाथ उठाया, मैंने सर हिला कर "नहीं " का इशारा किया।
वह इधर उधर आंगन में देखने लगा, दो कदम आगे आया और उस सूखे पेड़ की बगल में खड़ा हो गया । मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था, डर सा लगने लगा था अब ।
वो बहुत देर तक उस पेड़ को देखता रहा। कुछ देर यूं ही घूरने के बाद उसने अपनी गर्दन ऊंची की और मुझे देख मुस्कुराने लगा।

"चले जाओ, कुछ नहीं है"
"एक बार दिया, तो फिर ये रोज़ आएगा"
"अरे क्या हुआ , कौन है ?"
"कुछ नहीं माँ कोई नहीं है "
"खाली बैठा है तो  वो पेड़ ही उखाड़ दे  बेटा "
"हाँ ... माँ "
"जाओ चले जाओ, माँ आएगी तो मुसीबत हो जाएगी"

उसका मुस्कुराना अब भी रुका नहीं था, वो  उस सूखे पेड़ की तरफ  अब भी देख रहा था। मैं आंगन में कुदाली ढूंढने लगा, स्टील के दो ड्रमों के पीछे पड़ी थी, आख़िर मिल ही गयी।
मैंने कुदाली हाथ में उठाई और जैसे ही मुड़ा तो सन्न रह गया। वो पागल उस स्टील के डिब्बे से उस सूखे पेड़ पर पानी डाल रहा था। मैं थोड़ी देर खड़े खड़े उसे यूं ही देखता रहा। उसने सारा का सारा पानी उस पेड़ पर उड़ेल दिया, गर्दन ऊंची की मेरी तरफ देख मुस्कुराया और फिर चुप चाप बाहर चला गया।

"अरे उखाड़ दिया क्या ? "

मेरे हाथ से कुदाली छूट गयी, मैं पेड़ की ओर बढ़ा उसकी जड़ें तर हो चुकी थी ।

"क्या हुआ , उखाड़ दिया क्या ?"

"नहीं माँ , एक बार पानी डाल कर देख लेते हैं, शायद वापस उग जाए ।"


पेड़ के ठीक बगल में फॉयल में लिपटा बांसी खाना पड़ा हुआ था।

8 comments:

शिवम् मिश्रा said...

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 24/11/2018 की बुलेटिन, " सब से तेज़ - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

मन की वीणा said...

निशब्द !

Pratyush Saxena said...

Bahut Hi Badiya Sir ! :)

Onkar said...

बहुत सुन्दर

@Balwant said...

वाह बहुत खूब भाई

PARICHAY said...

Choked...

Pritam_raj@759! said...

बहुत सुंदर

Pritam_raj@759! said...

बहुत सुंदर