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Friday, December 30, 2011

बहुत ठण्ड थी.. उस रात....


एक पुरानी सड़क है... टूटी सी...  मैं रोज़ उस सड़क से ऑफिस जाता हूँ.... कुछ दूर उस सड़क पर एक चौराहा है... एक छोड़ा गोल चबूतरा है... ठीक उस चौराहे के बीच....


एक सफ़ेद बालों वाली बुढिया (शायद "बुढिया" शब्द भी उसकी उम्र के हिसाब से छोटा हो).. उस चबूतरे पर अपनी पीठ टिकाए एक पोटली में कुछ पुराने कपड़ों के टुकड़े, रोज़ टटोलती है.... चेहरा पूरा झुर्रियों से भरा पड़ा है.. आखें बहुत छोटी हो चुकी थी.. बहुत थकी सी दिखतीं थी.
मैं रोज़ देखता हूँ उसे...  उन कपड़ों के टुकड़ों को टटोलते हुए.. मानो... उसे ये चिंता है.. की कहीं कोई कम तो नहीं....?

प्लास्टिक की एक पुरानी पन्नी में कुछ बासी खाना और पुराने कपड़ो की पोटली... उसके बगल में रोज़ रहती..  अगर कोई ठीक से न देखे... तो चौराहे पर तीन पोटलियाँ नज़र आती.... दो छोटी.. और.. एक काफी बड़ी...

ठंडी का मौसम था... मुझमें कार की खिड़कियाँ खोलने  तक की हिम्मत नहीं थी पर फिर भी उस चौराहे पर अनायास ही आँखें रोज़ उस बुढिया को ढूँढती, बंद खिडकियों के पीछे से..

शायद उसे ठण्ड का एहसास नहीं था. सही बात तो है.. भूख का एहसास, हर एहसास को मार देता है.

मैं शाम को जब ऑफिस से घर लौटता तो वहीँ, उसी जगह पर बैठी मिलती,ठीक उसी जगह.
कई बार मन करता की कार रोक कर, उसे कुछ पैसे दे दूँ. कभी कभी तो जेब तक हाथ भी गया, पर जब तक ब्रेक पर पैर रखता, पीछे वाली गाडी का होर्न जोर से कान में गूँज जाता.

मैं कभी अपनी गाडी रोक नहीं पाया. कभी नीचे उतर नहीं पाया. पर हर बार  इसका कारण वो पीछे वाली गाडी को होर्न नहीं था.

ठण्ड रोज़ बढ़ रही थी. कार के बंद शीशे भी, अब ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहे थे.

अब उस बुढिया के हाथ कापते नज़र आ रहे थे. पैरों में फटे मोज़े आ गए थे. एक पतली सी चादर भी थी.
रोज़ की तरह मैं, उसे देखता हुआ निकल जाता.

एक दिन शाम को घर पहुँचने ने के बाद टीवी पर देखा, ठण्ड ने कई सालो का रिकॉर्ड तोड़ दिया था. १८३ लोग मारे जा चुके थे शहर में.

मैंने एक छोटा स्टूल उठा कर पुरानी अलमारी के ऊपर पड़े कपड़ों के ढेर में से एक पुरानी रजाई निकाल ली. थोड़ी फटी थी,पुरानी भी, पर शायद उस बुढिया के लिए काफी थी. टीवी पर उस समाचार पढने वाले को भी नहीं पता होगा की उस की इस खबर का,  किस पर क्या क्या असर हुआ है. मैंने  कार की चावी उस पुरानी रजाई पर रख दी ताकि सुबह जाते वक़्त कहीं रजाई भूल न जाऊं.

उस रात बहुत ठण्ड लगी, मुझे याद है. मैंने दो बार उठ कर देखा था की कोई  खिड़की कहीं खुली तो नहीं रह गयी है. दरवाज़े ठीक से बंद है.

बहुत ठण्ड थी.. उस रात....

सुबह उठा तो ,हाथ पैर सब ठंडे पड चुके थे, किसी तरह ऑफिस जाने के लिए तैयार हुआ. सुबह टीवी पर, वही समाचार पढने वाला था, उसने भी आज मोटा काट पहन रखा था. कल रात ठंड ने पिछले ५० साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया था.  रजाई... कार की डिक्की में डाल कर, मैं ऑफिस के लिए निकल पड़ा.

चौराहे पर पहुँचते ही, नज़रें उस बुढ़िया को ढूढने लगी,पर वह कहीं नज़र नहीं आई.
वो प्लास्टिक की पुरानी पन्नी (खाने वाली), और वो फटे कपड़ो का ढेर वहीँ था.

मैंने दो बार गोल चक्कर लगाये, पर वो कहीं नज़र नहीं आई.

पैर दो बार ब्रेक पर भी गए....पर ..

याद आया .. पिछली रात ठण्ड बहुत पड़ी थी...
उस समाचार पढने वाले ने भी यही कहा   था.......

मैं कभी फिर ... उस चौराहे के रास्ते से ऑफिस नहीं गया....
सच कहूँ तो ... उस दिन के बाद कभी हिम्मत भी नहीं हुई....

और वो समाचार पढने वाला... अब भी रोज़... टीवी पर .. ठंड की बातें करता है.....

रजाई... अब भी... कार की डिक्की में पड़ी  हैं.......

Photo Courtesy:
http://www.alexsohphotography.com/oldlady/oldlady.jpg

6 comments:

Aparna Gautam said...

Bhaai aapne dil dehla diya!!

Shatrughan said...

Emotional kar diya aapne aur kudh apne andar dekhne pe bhi....

Anonymous said...

kabhi kabhi mann kitna swarthi ho jaata hai, iska ek chota sa udaharan dekhne ko mila ... dil choo liya aapke iss kahani ne !!

S kumar said...

It seems the true story. If we feel and possible we should help to someone;we have to take some practically hard stand instead of thinking...

manish said...

Kitne ache tarike se aapne itna acha message de dala... kuch acha karne ka mann me aaye to kar daalo ...sovho nahi.... " nek iraadon ki umr bahut lambi nahi hoti"

विवेक अंजन श्रीवास्तव said...

वाह गुरु वाह छा गए एक नंबर