मैंने जब भी घर से बाहर कदम रखा है तो देखा है
पल्लू उँगलियों में दबाये, तेरे हाथ आँख मल रहे थे
दिवाली होली पर जब हम खोये रहे अपनी मस्तियों में
रसोई में हाथ उसके, गुजिए तल रहे थे
तुम ना जाने कब के सो गए थे उसकी गोद में
उसके हाथ तुम्हारे पीठ पर, तब भी चल रहे थे
कल जब मैं भीड़ में अकेला चल रहा था माँ
पैरों को जाने क्यों, रास्ते खल रहे थे
तेरा हाथ सर पर रहता है तो रौशनी सी रहती है
वरना रोज़ सूरज डूबता था, रोज़ दिन ढल रहे थे
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