मेरे घर के सामने वाली खिड़की .... मुझे ज़िन्दगी के और करीब ले जाती है....
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....
कभी हलके रंगों
से ढकी .... कभी गहरे रंगों का जमाव......
कभी हवाओं के साथ नाचते परदे..... कभी सन्नाटो का ठहराव.......
कभी खडखडाए गुस्से से ये...... कभी खामोश सी रह जाती है......
मेरे घर के सामने वाली खिड़की .... मुझे ज़िन्दगी के और करीब ले जाती है....
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....
कभी बच्चों की हंसी सुनाई दे..... कभी बूढों की खासियाँ.......
कभी हसीन हसीन से लम्हे...... कभी रोती हुई उदासियाँ.....
कुछ हिस्सा रहता है मेरा घर पर..... कुछ ये मुझे बाहर ले जाती है.....
मेरे घर के सामने वाली खिड़की .... मुझे ज़िन्दगी के और करीब ले जाती है....
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.......
कभी बच्चों की उम्मीदें दिखें ..... कभी माँ का इंतज़ार......
जुदाई के आँसू कभी...... कभी प्यार का इज़हार.....
लाख कोई खामोश रहे...... जाने ये क्या कुछ कह जाती है......
मेरे घर के सामने वाली खिड़की .... मुझे ज़िन्दगी के और करीब ले जाती है....
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....
बारिशों से बचाए कभी ...... धुप अन्दर ले जाए कभी......
दरवाजों सी दिलदार कभी...... सीमाओं की दीवार कभी.....
तूफानों को रोके कभी...... कभी मद्धम हवाओं से कतराती है.....
मेरे घर के सामने वाली खिड़की .... मुझे ज़िन्दगी के और करीब ले जाती है....
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....
न परदे हिलेंगे एक रोज़..... न झाकेंगी आँखें .....
का खडखडाएगी ये हवाओं से .... न करेगी मुझसे बातें.....
बंद हो जाएगी आँखों की तरह..... जैसे मौत जिस्म को आती है.....
मेरे घर के सामने वाली खिड़की .... मुझे ज़िन्दगी के और करीब ले जाती है....
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....