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Thursday, September 20, 2012

मेरे घर के सामने वाली खिड़की .... मुझे ज़िन्दगी के और करीब ले जाती है....

मेरे घर के सामने वाली खिड़की .... मुझे ज़िन्दगी के और करीब ले जाती है....
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....


कभी हलके रंगों  से ढकी  .... कभी गहरे रंगों का जमाव......  
कभी हवाओं के  साथ नाचते परदे..... कभी सन्नाटो का ठहराव.......
कभी खडखडाए गुस्से से ये...... कभी खामोश सी रह जाती है...... 
मेरे घर के सामने वाली खिड़की .... मुझे ज़िन्दगी के और करीब ले जाती है....
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....

कभी बच्चों की हंसी सुनाई दे..... कभी बूढों की खासियाँ....... 
कभी हसीन हसीन से लम्हे...... कभी रोती हुई उदासियाँ.....
कुछ हिस्सा रहता है मेरा घर पर..... कुछ ये मुझे बाहर ले जाती है..... 
मेरे घर के सामने वाली खिड़की .... मुझे ज़िन्दगी के और करीब ले जाती है.... 
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.......

कभी बच्चों की उम्मीदें दिखें ..... कभी माँ का इंतज़ार...... 
जुदाई के आँसू कभी...... कभी प्यार का इज़हार.....
लाख कोई खामोश रहे...... जाने ये क्या कुछ कह जाती है......
मेरे घर के सामने वाली खिड़की .... मुझे ज़िन्दगी के और करीब ले जाती है.... 
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....

बारिशों से बचाए कभी ...... धुप अन्दर ले जाए कभी......
दरवाजों सी दिलदार कभी...... सीमाओं की दीवार कभी.....
तूफानों को रोके कभी...... कभी मद्धम हवाओं से कतराती  है.....
मेरे घर के सामने वाली खिड़की .... मुझे ज़िन्दगी के और करीब ले जाती है.... 
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....

न परदे हिलेंगे एक रोज़..... न झाकेंगी आँखें .....
का खडखडाएगी ये हवाओं से  .... न करेगी मुझसे बातें.....
बंद हो जाएगी आँखों की तरह..... जैसे मौत जिस्म को आती है.....
मेरे घर के सामने वाली खिड़की .... मुझे ज़िन्दगी के और करीब ले जाती है.... 
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....

सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....
सुबह सुबह ये खुलती है..... शाम को बंद हो जाती है.....


Wednesday, September 12, 2012

पर अब पहले जैसा कहाँ रहा......


जाने क्या देख रहा थाकुछ तो देख रहा था. गर्दन थोड़ी सी नीचे की और झुकी हुईऔर आखें जैसे झपकना ही भूल गयीं हो. सामने वाले फूटपाथ पर चलते हर कदम पर उसकी नज़र थी. ऐसा लगता होजैसे बस यही काम था उसका.


जाने कितने सालों से वो रोज़ उसी पेड़ के नीचे बैठताएक खूँटी सी गढ़ी थी ज़मीन मेंऔर जूतों के कुछ पुराने फीतों से एक टूटी सी छत्रीउस खूंटे से बंधी थी लोहे की एक तिकुने सी चीज़ उसके सामने पड़ी रहती  जिस पर हमेशा एक पुराना जूता औंधे मुह लेटा हुआ होता.

मोटे चश्मे पहने वो बूढा अब तक गर्दन झुकाएउन क़दमों की तरफ ही देख रहा था. चश्मा इतना मोटा था की उसके पीछे की वो कमज़ोर आखें तक नहीं नज़र आ रहीं थी, और उन आखों को भी शायद ही कुछ कम ही दिखाई दे रहा होगा चश्में के उस पार. 

वो उसी जगह बैठे लोगों के जूते , चप्पलें सीता था, पर अब पहले जैसा कहाँ रहा, पहले लोग चप्पलों में सेफ्टी पिन लगाये उस तक पहुँच जाते थे. अब तो वैसा भी नहीं रहा,  जाने सुबह से शाम तक वहाँ बैठे बैठे कितना कमा लेता होगा.

पहले तो हाथ उस  मोटे सुए में फंसे सफ़ेद धागे को बड़ी तेजी से चमड़ों के आर पार करते थे, और धागे का जो सिरा बाहर की तरफ बच जाता, बड़ी सफाई से उसे काट दिया जाता. मैंने भी कई दफे अपने घिसे हुए स्कूल के काले जूतों में  रबर की मोती परतें लगवाई थी उससे, पर आजकल कोई नहीं आता उसके पास, मुझे भी कुछ शर्म सी आती है अपने बच्चों के फटे जूते वहाँ खड़े खड़े उससे सिलवाने में और बच्चों को उन सिले हुए जूतों को पहनने में शायद ज्यादा शर्म आये.

कोई नहीं आता आज कल.

अगर कोई आकर उसके सामने रुक जाता तो पहले वो बूढ़ीं आखें खूब उन जूतों को देखती,  फिर वो गरदन उठा कर चेहरे की तरफ देखते हुए कहता  "बोलिए भाई साहब... सी दूँ.... "

मैं अब तक ये नहीं समझ पाया की वो रोज़ यहाँ आता क्यों है, चप्पलें जूतें कौन ठीक कराता है आज कल, समय कहाँ है किसी के पास. लोग तेज़ पैरों को नहीं संभाल पाते, तो फिर चप्पलों और जूतों .............खैर छोड़ों जाने दो... 
पर मैं आज भी उसे वहीँ बैठा देखता हूँ, मोटे चश्मे के पीछे से, उन क़दमों को घूरते हुए.... 

और आज भी जब वो आता है.... नंगे पाँव ही आता है......


Photo From: http://www.flickr.com/photos/baggaz/4307347966/in/photostream/