एक ऐसी ही तारीख थी.... काफी साल बीत गए... उस कोफ़ी की दूकान में ...
एक छोटे से टेबल पर... हम मिले थे...
मैं वहाँ बैठे बैठे ये सोच रहा था ... की मैं जो कहूँगा ... सच कहूँगा... जाने बात कितनी दूर तक पहुंचे.... और हाँ... सच ही कहा था मैंने.... तुमसे..
इस तारीख पर भी मैंने कुछ ऐसा ही कहा... मैं जो कहूँगा सच कहूँगा...
बात बहुत दूर तक आ चुकी थी अब... बहुत दूर...
कोफ़ी की दूकान फिर से ज़हन में आने लगी.... मेनू हाथ में लिए.. जाने क्या सोच रही थी वो ...
उसे देखते देखते .... मैं ये भी भूल गया.. की वेटर पंद्रह मिनट से पूछने के लिए नहीं आया...
मेरी आदत थी गिलास से टक टक करने की टेबल पर.... टक टक टक... वेटर ने अब भी शायद सुना नहीं.... टक टक टक...
फिर ध्यान आया की आवाज़ गिलास की नहीं हैं ... मैं कोर्ट में हूँ....
वो आवाज़... उस हथोड़े की थी... जो जज साहब ... मेरा ध्यान खींचने के लिए.. लकड़ी के उस मेज़ पर पटक रहे थे....
न वेटर था.. न मेनू.... न काँच का वो खाली गिलास...
हाँ वो थी.. बिलकुल मेरे बगल में खड़ी हुई.... कोर्ट की तारीख थी.... एक तारीख ही तो थी....
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