चार बसें गुज़र चुकी थी... जाने वो किसका इंतज़ार कर रही थी बस स्टॉप पर...
कुछ फटी पुरानी टिकटें ज़मीन पर लोटते हुए...बार बार उसके पैरों को छुं रही थी...
मानो जैसे की उसे छेड़ रहीं हो.... हँस रही हो इस बात पे ... के उसे ये तक नहीं पता, की जाना कहाँ है ?
आस पास की भीड़ हर दस मिनट में अपना चेहरा बदल रही थी... हर बस के बाद बस स्टॉप का हुलिया बदल सा जाता, सड़क के उस ओर खड़े उन दो टेक्सी वालों ने भी उम्मीद छोड़ दी थी ... इक नज़र भी न देखा था उसने उनकी तरफ.
सूरज ओर क्षितिज की दूरी, धीरे धीरे अब सिमटने लगी थी, फिर दूर से एक स्कूल की बस आती नज़र आयी. उसकी आँखें तुरंत उस बस की ओर उठीं ,चेहरे के हाव भाव कुछ बदलने से लगे.
करीब पांच छह बच्चे, कुछ थके हारे से,पिख्रे बाल और धूल भरे जूते पहने .. बस से उतरे.
वो कुछ देर तक यूंही उन बच्चों को तांकती रही. फिर वापस हलके हलके क़दमों से वापस जाने लगी... न जाने कहाँ... ?
वो रोज़ इसी तरह, बस स्टॉप पर खड़ी रहती ओर शाम को जब स्कूल के आने के बाद, वो जाने कहाँ गायब हो जाती. ये सिलसिला रोज़ चलता... रोज़.... बस रविवार को वो नज़र नहीं आती.
मैं रोज़.. अपने घर की खिड़की से बस स्टॉप की उस छोटी सी दुनिया में होती हुई हलचलों को देखता.
मन में रोज़ ये ख़याल आता की ये सिलसिला कब तक चलेगा, ओर अहम् बात तो ये थी की कब से चल रहा था..?
फिर एक दिन मुझसे रहा नहीं गया, मैंने निर्णय लिया की आखिर कोई रोज़ इस तरह से... रोज़.... ?? कैसे...? ओर क्यों??
अगले दिन ... सुबह मैं बस स्टॉप पर था, एक पुरानी पान की दूकान नज़र आयी, बस अभी अभी खुली थी, वो बूढ़ा टला खोल कर चाबी जेब में ही रख रहा था.
वो जो लड़की रोज़ यहाँ खड़ी रहती है,न किसी बस में कहीं जाती है... न कहीं इधर उधर... बस खड़ी रहती है दिन भरी.. आप जानते हैं ?
अरे साहब आपको कैसे पता.... तीन महीने से ये सिलसिला चल रहा है..... आज तक किसी ने नहीं पूछा... आप... ? आप जानते हैं उन्हें... ?
नहीं.. मैं नहीं जानता... पर कुछ दिनों से देख रहा हूं.. सोचा आज पता कर लूं.... कौन है ये लड़की..? ओर ये सब क्या है..? कुछ पता है आपको?
बूढ़ा कुछ देर तक चुप रहा, फिर बोला साहब.. तीन महीने पहले की बात है... ये लड़की रोज़ इस बस स्टॉप पर आती थी... अपने छोटे बच्चे के साथ... बड़ा ही सुन्दर बच्चा था साहब.रोज़.. स्कूल की बस में छोड़ने आती ओर शाम को फिर लेने आती... और एक दिन ... एक दिन... इसी बस स्टॉप पर... कहते कहते वो पान वाला बूढ़ा रुक गया..
बोला... साहब... गेंद उस पार गयी... और ... वो बच्चा अपनी माँ से हाथ छुड़ा ... उस गेंद के पीछे दौड़ा....
बस ये कह के वो चुप हो गया.....
मुझसे भी कुछ कहा न गया.... मुझे मेरा जवाब मिल चुका था ..
एक माँ थी वो..... थी.... इस "थी" शब्द में जाने कितना दुख ... कितनी पीड़ा भरी हुई थी...
मैं अब भी रोज़... अभी खिड़की से उसको देखता हूं.... वो माँ अब भी उस स्कूल बस का इंतज़ार करती है.... अब भी... स्कूल के बच्चे अब भी वहीँ उतरतें हैं ... और वो स्कूल की पिली बस.. रोज़ आती है.... वो क्या सोचती है ... उसे कैसा लगता है.... यह शायद ... शब्दों में कहना कठीन होगा.....
शायद इतना कहना काफी होगा... की वो अब भी रोज़ आती है उस बस स्टॉप पर...
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