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Tuesday, November 11, 2014

तीन कप . . . .

शहर बिलकुल बदल चुका था पहले जैसा कुछ नहीं रहा था,  मैं ना जाने कितने सालों बाद लौटी थी। अब घुटने कमज़ोर हो चुके थे और बाल उम्र बयां करने लगे थे। बहुत कुछ पाया, बहुत कुछ खोया था इस शहर में, और आज.... ?? आज ज़िंदगी फ़िर मुझे यहाँ फ़िर खींच कर ले लायी थी। 

एक दौर था जब इस शहर की ख़ाक छानी थी "उसके" साथ, शहर का कोई रेस्टोरेंट, कोई रास्ता ऐसा नहीं था जहां हम साथ न गए हो। हम दोनो एक दूसरे से कितने अलग थे, मुझे उससे जुडी हर तारीख याद रहती, हम पहली बार कब मिले, उसने पहली बार मेरा हाथ कब पकड़ा और न जाने क्या  क्या और एक वो था मेरा जन्मदिन तक भूल जाता, कभी मिलने के लिए खुद बुलाता और खुद ही भूल जाता,  पर बहुत प्यार करता था मुझसे। आज भी वो मुझे याद तो आता था पर कभी कभी.... हाँ कभी कभी। आज इस शहर में वापस लौट कर जैसे किताब का वो पन्ना मेरे सामने आ गया था, वो किताब जिसमें हमारी कहानी लिखी थी, हम दोनों की.....। मैंने अपनी ज़िंदगी के दो बड़े फैसले इसी शहर में लिए थे, एक उसे चुनने का और दूसरा उसको छोड़ कर उससे दूर चले जाने का।  एक कहानी अधूरी छोड़ कर चली गयी थी मैं इस शहर में ....

अरे हाँ एक रेस्तरां भी तो था, जहां हर इतवार हम दस बजे मिलते थे, हर इतवार.... मैं और वो ....
 
मैं कॉफ़ी मंगाती और वो चाय और फ़िर एक खाली कप मंगा कर हम आधी चाय और आधी कॉफ़ी मिलाते, ना मेरे कप में पूरी कॉफ़ी होती ना उसके कप में पूरी चाय, रेस्तरां वाले भी सोचते ये दोनों न जाने क्या करते रहतें हैं।   ये सिलसिला तब तक चला जब तक हम दोनों साथ थे, मिली हुई कॉफ़ी और चाय का वो स्वाद आज फिर जुबां को छू गया, अजीब था ना कॉफ़ी और चाय मिला कर पीना।  हम भी तो ऐसे ही थे चाय और कॉफ़ी की तरह बिलकुल एक दुसरे से अलग  पर फिर भी घुल गए थे आपस में। 
 
हम दोनों में वो ज्यादा कमज़ोर था, उस पर ना जाने क्या बीती होगी, मैं जिस हाल में उसे अकेला छोड़ कर चली आई थी, जाने फिर क्या हुआ होगा। कभी उससे न बात हुई ना मुलाक़ात, शायद हमारी कहानी वहीँ तक लिखी गयी थी.... वहीं तक....।  मेरे लिए बहुत मुश्किल था उतना ही मुश्किल जितना उस कप में मिली हुई चाय और कॉफ़ी को अलग करना। वो रेस्टोरेंट का चाय कॉफ़ी वाला सिलसिला और ना जाने ऐसे कितने सिलसिले थम गए...

शहर, मैं और हालात सब बदल चुके थे, सोचा क्यों न उस रेस्टोरेंट को जाकर भी देखा जाए की वो कितना बदल चूका है , या है भी की नहीं ?

चौराहे का नाम मुझे याद करने में ज़रा सी देर लगी पर रिक्शे वाला तुरंत समझ गया,

"हाँ मेमसाब अब भी है, पर अब इतना चलता नहीं बहुत सारे नए रेस्टोरेंट जो खुल गए हैं आसपास"

बीस मिनिट लगे, उसने ठीक मुझे उस रेस्टारेंट के सामने उतार दिया।  मैंने चार कदम पीछे हट कर बोर्ड की तरफ देखा, नाम वही था, पर बोर्ड नया था। कुछ जगहें भी हम जैसी ही होतीं हैं , नाम वही रहता है पर कितनी बदल जातीं हैं....  है ना.... ? 

काँच के दरवाज़े को धकेलते ही ऐसी की ठंडी सी हवा टकरा गयी, रेस्टोरेंट में वो पुरानी लकड़ी की कुर्सियाँ अब भी थीं, टेबल कुछ अलग से लग रहे थे। मैं उसी जगह बैठना चाहती थी जहां हम बैठा करते थे, पर वहाँ पहले से कोई बैठा हुआ था। 

मैं एक कोने में पड़े टेबल पर जा कर बैठ गयी , वो नज़ारा ठीक मेरे सामने था , मुझे हम दोनों ठीक उसी टेबल पर बैठे हुए नज़र आ रहे थे।  चाय के तीन कप टेबल पर रखे हुए , एक दुसरे से बातें करते हुए।  कितने अच्छे लगते थे हम एक दुसरे के साथ।  काश मैं उसी टेबल पर बैठ पाती , पर कोई कम्बखत वहाँ बैठा हुआ था।  जाने क्या ख़याल आया मैं अपनी जगह से उठ कर उस शख्स के बगल में जा कर खड़ी हो गयी।

" सुनिये,  मैं कुछ देर के लिए इधर बैठ सकती हूं  ? "

उसे शायद सुनाई नहीं दिया 

"सुनिये.... !! सुनिये मैं कुछ देर  …… ??  "

उसने हल्की सी गर्दन घुमाई और मेरी और देखा 

मेरे क़दमों में जैसे जान ही नहीं रही, मैं दो कदम पीछे हटी अपने पीछे पड़ी कुर्सी को दोनों हाथों से ज़ोर से जकड लिया,

"तुम  …… "


वही आँखें.... वही मोटी सी समोसे सी नाक …
ये वही था, सालों पहले आखरी बार जाने कहाँ मिले थे, और आज.....  आज मुझे ठीक इस जगह मिला …इस जगह  .... ??

बाल सफ़ेद हो चुके थे, चश्मा लग चूका था पर कपड़े पहनने का ढंग अब भी वही था , वही चेक्स वाली नीली शर्ट, वही सैंडल।

वो मेरी और देखे जा रहा था, जैसे मुझे पहचानने की कोशिश रहा हो। 

 "कैसे हो तुम ? "
  
"जी माफ़ कीजिये, मैंने आपको पहचाना नहीं "
  
"मैं....  मैं सरोज  ...."

"माफ़ कीजियेगा,  सरोज ?? सरोज कौन ??"

"शायद कभी मुलाक़ात हुई होगी, माफ़ कीजिएगा याद नहीं मुझे "

"अरे तुम मुझे कैसे भूल सकते हो, हम.... हम यहीं तो मिला करते थे...  अरे मैं हूँ मैं सरोज "


ये कहते कहते मैं उसके बगल वाली कुर्सी पर बैठ गयी, बहुत कोशिशें की उसे याद दिलाने की, सारा रेस्टोरेंट हमे देख रहा था। वो ये जान बूझ कर कर रहा था, मुझे कभी माफ़ नहीं किया होगा उसने, पर जिस तरह से वो ये कह रहा था, ऐसा लग रहा था जैसे उसे सच में कुछ याद नहीं हैं । मैं उसे याद दिलाने की कोशिश करती रही पर उसे कुछ याद नहीं आ रहा था, वो मुझसे बार बार माफ़ी मांग रहा था ।

  
"तुम.... तुम ये जान बूझकर कर रहे हो ना ? मैं जानती हूँ , माफ़ कर दो मुझे "

मेरे आँखों में अब पानी भर आया था, मैं गिड़गिड़ाती रही , रोती रही , उस पर कोई असर नहीं हो रहा था

फ़िर उसने मेरी और देख कर कहा, देखिये आपको कोई गलतफ़हमी  हो रही है , आप इस तरह रोइए नहीं

"मुझे मत पहचानो , पर कम से कम मुझे ये कह दो की तुमने मुझे माफ़ किया "

मैंने रोते हुए अपना सर टेबल पर रख दिया 

"क्या किया है आपने ... ? मैं कौन होता हूँ आपको माफ़ करने वाला " 

तभी रेस्टोरेंट का दरवाज़ा खुला, और करीब ३२ -३३ साल का नौजवान हमारे पास आ कर खड़ा हो गया, बिलकुल उसी की तरह दिखता था 

"चलिए पापा, घर चलतें हैं "
  
फिर वो मेरी आँखों में पानी देख पर बोला,

"माफ़ कीजियेगा आँटी, मैं जानता हूँ शायद आप कोई इनके जान पहचान के रहे होंगे, पर अब इन्हें कुछ याद नहीं हैं "

"इन्हें अल्ज़ाइमर है, मैं इनकी तरफ से आप से माफ़ी मांगता हूँ"

 "चलिए पापा "

इससे पहले के मैं उसे कुछ कह पाती वो उसे वहाँ से उठा कर ले गया, उसने जाते जाते मेरी ओर देखा और हल्का सा मुस्कुरा दिया, जैसे कोई किसी अजनबी की और देख कर मुस्कराता है

अल्ज़ाइमर .... ?? उसकी वो भूलने की आदत  .... !!

मैं उसकी दोषी थी और आज जब मुझे मौका मिला था उससे माफ़ी मांगने का तो उसे कुछ याद नहीं, ना मैं, ना मैंने उसके साथ जो किया वो ....

मैं अंदर से हिल गयी थी, कुछ सूझ नहीं रहा था, आँखें बही जा रहीं थी, आज हम दोनों में, मैं कमज़ोर हो चुकी थी , वो मुझे वापस मिला भी और नहीं भी ...

आँखें पोंछते पोछतें टेबल पर नज़र पड़ी ,

तीन कप रखे हुए थे, एक में आधी चाय थी, एक में आधी कॉफी। 
एक कप खाली था जिसके तले में थोड़ी सी मिली हुई चाय कॉफ़ी पड़ी हुई थी 

"क्या ? वो आज भी … "

"जाने कितने सालों से , जाने कब से  ? " 

और मैं सोचती थी , मेरे जाने के कुछ दिनों बाद सब ठीक हो जाएगा। 

ये मुझसे क्या हो गया ? ये मैंने क्या कर दिया ?

मैंने खुद को उससे बहुत दूर कर दिया था , पर उसने आज तक...  आज तक ...

मैं अब सुन्न पड़ चुकी थी , मुझे आसपास का ना कुछ दिखाई न सुनाई दे रहा था 

दिख रहे थे तो वो सिर्फ टेबल पर पड़े हुए वो तीन कप। 

तभी वेटर आया

"  Ma'am  ये चाय कॉफ़ी आप की है  ? "

"जी ?" 

" Ma'am  ये चाय कॉफ़ी आप की है  ? "

मैंने अपने आँसू पोंछे 

"हाँ मेरी है, मेरी ही तो है "

मैंने आधी चाय उस आधी कॉफ़ी में डाल दी, स्वाद अब भी वैसा ही था। 

सामने दीवार पर कैलेंडर टंगा था , आज इतवार था। 




Pic From :http://qz.com/215666/how-climate-change-and-a-deadly-fungus-threaten-our-coffee-supply/

20 comments:

  1. रुला दिया आपने.. बहुत अछा लिखा है..
    "आज इतवार था।"

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  2. U me aur hum picture kitani baar Dekhi he ???

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  3. बहुत खूबसूरत कहानी.. चित्रित हो गया आँखों के सामने..

    p.s.: वर्तनी सही कर लें कुछ जगह जैसे "दूसरे"..

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  4. Dhanywad...Aankho ko Dhulne ke Liye...

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  5. hamari hee kahani likh dali
    par hamko himmat nahi hai shayad nam batane kee..

    chai - coffee...wah

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  6. भार्इ क्‍या लिखते हो... पढ़ नहीं रहा था, वहीं रेस्‍टोरेंट में बैठकर देख रहा था...गुफ्तगू...सलाम...

    रमेश शर्मा 'प्रयाग'

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  7. Sir, Aankh bhar aai,kya likhate hain aap. Ye kahani bilkul meri hai. Is kahani ko likhane ke liye aapka hamesha aabharee rahunga...

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  8. Sir maine aapki ek story ki recording ki hai...mujhe accha lagta hai kahaniyo ko apni aawaj dena...

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    1. भईया भेज देंगे ये मेरा no है 9794987718

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  9. Sir maine aapki ek story ki recording ki hai...mujhe accha lagta hai kahaniyo ko apni aawaj dena...

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    1. शुक्रिया ... लिंक दीजिएगा . :)

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  10. Sir, Aankh bhar aai,kya likhate hain aap. Ye kahani bilkul meri hai. Is kahani ko likhane ke liye aapka hamesha aabharee rahunga...

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  11. अल्फ़ाज़ नही है आपका ये इतबार बया करने को...शानदार ...हमेशा की तरह

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  12. शानदार.... कुछ पुराने दिनों के अहसाश फिर से ताज़ा कर दिए

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  13. एकदम आपकी पंक्तियों की तरह लाजवाब

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  14. ये पढ़ के सिर्फ आंखे नहीं,मेरा दिल भी बोहत रो रहा है।

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  15. आज तो मैं मेरा दिल अंदर से रो दिया क्या लिखे हो आप शब्द नही है मेरे पास आपके लिए

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  16. ऐसा मुकम्मल इश्क़..ऐसे ही अधूरा रह जाता है..आपके इस ख़याल को मेरा सलाम मिथिलेश जी..

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  17. ये इश्क़ है साहब, इतनी आसानी से थोड़ी उतरेगा

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