नुक्कड़ के मोड़ पर एक पुराना बरगद का पेड़ था, उसके चारों और सीमेंट का गोल चबूतरा था, हम चार दोस्त हर शाम वहीं बैठते। आपस में हँसी मज़ाक, हर आने जाने वाले का मज़ाक उड़ाना और न जाने क्या क्या। तब मोबाइल, वव्हाट्सएप्प नहीं होता था, तब सिर्फ़ बरगद के पेड़ होते थे। खैर जाने दीजिये।
रोज़ ऐसी बैठकों के सिलसिले चलते रहते। कभी किसी बच्चे को डरा दिया कभी किसी बुज़ुर्ग को कह दिया की उसके थैले में से कुछ गिर गया है, रोज़ कुछ न कुछ ढूंढ ही लेते थे हम। फिर एक दिन की बात है, हम यूं ही बैठे हुए थे की एक स्कूटर चबूतरे के बगल से गुज़रा, एक महिला करीब ३० -३२ साल की रही होगी वो स्कूटर चला रही थी, फ़िर दिखा की दुप्पटे से उसने एक बच्चे को कमर से बांध रखा है, नौ दस साल का रहा होगा। जैसे ही वो चबूतरे के पास आयी, मेरे मुंह से निकल गया "झाँसी की रानी " !!
मेरे तीनों दोस्त हँस पड़े, स्कूटर थोड़ी दूर ही गया था, वो स्कूटर चलाते चलाते पीछे मुड़ी और मुस्कुरा कर आगे बढ़ गयी। फ़िर हम सब काफ़ी देर तक हँसे। दोस्त यह कह कह कर हँस रहे थे की "सच में यार झांसी की रानी ही लग रही थी, ऐसी भी कोई बच्चे को बांधता है क्या ?
झाँसी की रानी, बिलकुल वैसे ही दिखती होगी, बस घोड़े की जगह स्कूटर था। मज़ा तो हम सभी को बहुत आया पर उसका वो पीछे मुड़ कर मुस्कुराना थोड़ा चुभ सा गया। अगले दिन वो फ़िर वहाँ से गुज़री , इस बार मैं ज़ोर से चिल्लाया "झाँसी की रानी" !! दोस्त लोग फ़िर ज़ोर से हँसे। वो पीछे मुड़ कर फ़िर मुस्कुराई।
सिलसिला कुछ दिनों तक इसी तरह चलता रहा, वो कमर में उस बच्चे को बाँध कर लक्ष्मीबाई की तरह रोज़ गुज़रती, हम रोज़ ज़ोर से चिल्लाते और वो जाते जाते पीछे मुड कर रोज़ मुस्कुरा जाती। वो दोनों इसी तरह रोज़ उस चबूतरे के पास से गुज़रते, पता नहीं कहाँ जाते थे पर रोज़ गुज़रते थे। अब वो रोज़ का मज़ाक नहीं रहा था। मानो मेरा उसको "झाँसी की रानी" कहना और उसका मुस्कुरा देना जैसे सलाम नमस्ते वाली बात हो। पर फ़िर भी हमें बड़ा मज़ा आता था "झाँसी की रानी"
झाँसी की रानी की मुस्कान बहुत सुन्दर थी , वो खुद भी बहुत सुन्दर थी, पर कभी उस बच्चे की शक्ल नहीं नज़र आई , वो दोनों हाथों से अपनी माँ को ज़ोर से जकड़े रहता , और वो दुपट्टा उसे झाँसी की रानी की पीठ से कस के बांधे रखता। रोज़ उसे चिढ़ाने के सिलसिले के साथ साथ ये एहसास होने लगा की कुछ अजीब सा है कुछ अलग सा है ये सब। सोचा पता करना पड़ेगा , कहानी क्या है इस झाँसी की रानी की ?
फ़िर उस दिन वो फ़िर गुज़री , "झाँसी की रानी" !! हम फ़िर चिल्लाये !! वो हर बार की तरह मुस्कुरा कर चल गयी। इस बार मैं भी तैयार था , तुरंत अपनी साइकिल निकाली और उसका पीछा करने लगा , वो काफी आगे निकल गयी थी फ़िर भी मेरी नज़रों के दायरे में थी। फिर देखा की वह दायीं तरफ बने एक लोहे के गेट के अंदर मुड़ गयी , मैं फ़टाफ़ट पैडल मारते हुए उस गेट तक पहुँचा और साइकिल दीवार से सटा कर हांफता हुआ लोहे के गेट से झाँकने लगा।
उसने जैसे तैसे उस इमारत के दरवाज़े के सामने स्कूटर रोका , पैर नीचे पहुँचते जो नहीं थे। फिर उसने साइड स्टैंड बड़ी मुश्किल से लगाया और पीठ पर बंधे उस बच्चे के साथ ही नीचे उतरी। चार कदम चल कर सीढ़ियों तक पहुँची और फ़िर पलट कर गेट की तरफ मुँह कर कर धीरे धीरे बैठने लगी, अपने दोनों हाथ पीछे ले जा कर फ़िर उसने देखा की बच्चा ठीक से सीढ़ीओं पर बैठ गया है , और फ़िर उसने वो दुप्पटे की गाँठ खोल दी।
मैं अब भी गेट की उन लोहे की सलाखों के पीछे से उसे देख रहा था।
फ़िर मुझे वो बच्चा नज़र आया, नौ या दस साल का ही था, चेहरा बिलकुल अजीब सा था, होठों से लार टपक रही थी, उसके दोनों हाथ अलग अलग दिशा में हिल रहे थे, वो कुछ अजीब सी आवाज़ें निकाल रहा था, अपनी माँ को दोनों हाथों से जकड़ने की कोशिश कर रहा था , और वो उसे पकड़ पर उसे अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश कर रही थी। करीब पंद्रह मिनट तक ये जद्दो जहद चलती रही, कभी वो दुप्पटे को संभालती कभी उसे, कभी रुमाल से उसका मुँह पोंछती कभी उसके साथ नीचे बैठ कर उसे मनाने की कोशिश करती। वो बहुत ज़ोर से अजीब सी आवाज़ें कर रहा था। फ़िर किसी तरह वो उसे अंदर ले गयी।
ऐसा लगा जैसे किसी ने अंदर से मुझे जंझोर दिया हो , मुझे सब समझ में आ गया था, गेट से दो कदम पीछे हटा और ऊपर लगे बोर्ड पर नज़र गयी "समर्थ स्कूल ऑफ़ मेंटली चैलेंज्ड" , आँखें पानी से भरी हुईं थी फिर भी बोर्ड पर लिखा साफ़ साफ़ नज़र आ रहा था। मेरे पैर अब जवाब दे रहे थे, मैं गेट से हट कर दीवार पर पीठ सटा कर आसमान तांकने लगा। सीने में एक अजीब सी घुटन होने लगी थी।
ये मुझसे क्या हो गया, ये मैंने क्या कर दिया, ये रोज़ इस तरह यहाँ अकेली आती है, अकेली जूझती है और मैं उसका मज़ाक उड़ाता रहा। और उसने क्या किया, बस मुझे देख कर मुस्कुराती रही, सिर्फ मुस्कुराती रही। किस मुश्किल से उसने उसे स्कूटर से नीचे उतारा था , ना जाने कैसे बांधा होगा खुद से , ना जाने वो ये रोज़ कैसे कर लेती है। कैसे हैं ये लोग, कहाँ से लाते हैं ऐसा दिल, कहाँ से लाते हैं ऐसी हिम्मत, मैंने दोनों हथेलियों से आँखें पोंछी , और फिर उन लोहे की सलाखों से झाँकने लगा। वो सीढ़ियों पर बैठी थी कोई किताब हाथ में लिए , उसके वापस आने का इंतज़ार कर रही थी शायद।
मन किया की उससे जा कर माफ़ी मांग लूं , पर हिम्मत नहीं हुई।
कदम वापस लिए , दिवार से सटी साइकिल को लिया और वापस उस बरगद के पेड़ की तरफ जाने लगा। उसका मुस्कुराता वो सुन्दर सा चेहरा अब भी ज़हन में आ रहा था।
सच में झाँसी की रानी ही तो थी , झाँसी की रानी।
Picture from :http://www.visualphotos.com/photo/2x4284372/woman_reading_book_on_stairs_1835156.jpg
रोज़ ऐसी बैठकों के सिलसिले चलते रहते। कभी किसी बच्चे को डरा दिया कभी किसी बुज़ुर्ग को कह दिया की उसके थैले में से कुछ गिर गया है, रोज़ कुछ न कुछ ढूंढ ही लेते थे हम। फिर एक दिन की बात है, हम यूं ही बैठे हुए थे की एक स्कूटर चबूतरे के बगल से गुज़रा, एक महिला करीब ३० -३२ साल की रही होगी वो स्कूटर चला रही थी, फ़िर दिखा की दुप्पटे से उसने एक बच्चे को कमर से बांध रखा है, नौ दस साल का रहा होगा। जैसे ही वो चबूतरे के पास आयी, मेरे मुंह से निकल गया "झाँसी की रानी " !!
मेरे तीनों दोस्त हँस पड़े, स्कूटर थोड़ी दूर ही गया था, वो स्कूटर चलाते चलाते पीछे मुड़ी और मुस्कुरा कर आगे बढ़ गयी। फ़िर हम सब काफ़ी देर तक हँसे। दोस्त यह कह कह कर हँस रहे थे की "सच में यार झांसी की रानी ही लग रही थी, ऐसी भी कोई बच्चे को बांधता है क्या ?
झाँसी की रानी, बिलकुल वैसे ही दिखती होगी, बस घोड़े की जगह स्कूटर था। मज़ा तो हम सभी को बहुत आया पर उसका वो पीछे मुड़ कर मुस्कुराना थोड़ा चुभ सा गया। अगले दिन वो फ़िर वहाँ से गुज़री , इस बार मैं ज़ोर से चिल्लाया "झाँसी की रानी" !! दोस्त लोग फ़िर ज़ोर से हँसे। वो पीछे मुड़ कर फ़िर मुस्कुराई।
सिलसिला कुछ दिनों तक इसी तरह चलता रहा, वो कमर में उस बच्चे को बाँध कर लक्ष्मीबाई की तरह रोज़ गुज़रती, हम रोज़ ज़ोर से चिल्लाते और वो जाते जाते पीछे मुड कर रोज़ मुस्कुरा जाती। वो दोनों इसी तरह रोज़ उस चबूतरे के पास से गुज़रते, पता नहीं कहाँ जाते थे पर रोज़ गुज़रते थे। अब वो रोज़ का मज़ाक नहीं रहा था। मानो मेरा उसको "झाँसी की रानी" कहना और उसका मुस्कुरा देना जैसे सलाम नमस्ते वाली बात हो। पर फ़िर भी हमें बड़ा मज़ा आता था "झाँसी की रानी"
झाँसी की रानी की मुस्कान बहुत सुन्दर थी , वो खुद भी बहुत सुन्दर थी, पर कभी उस बच्चे की शक्ल नहीं नज़र आई , वो दोनों हाथों से अपनी माँ को ज़ोर से जकड़े रहता , और वो दुपट्टा उसे झाँसी की रानी की पीठ से कस के बांधे रखता। रोज़ उसे चिढ़ाने के सिलसिले के साथ साथ ये एहसास होने लगा की कुछ अजीब सा है कुछ अलग सा है ये सब। सोचा पता करना पड़ेगा , कहानी क्या है इस झाँसी की रानी की ?
फ़िर उस दिन वो फ़िर गुज़री , "झाँसी की रानी" !! हम फ़िर चिल्लाये !! वो हर बार की तरह मुस्कुरा कर चल गयी। इस बार मैं भी तैयार था , तुरंत अपनी साइकिल निकाली और उसका पीछा करने लगा , वो काफी आगे निकल गयी थी फ़िर भी मेरी नज़रों के दायरे में थी। फिर देखा की वह दायीं तरफ बने एक लोहे के गेट के अंदर मुड़ गयी , मैं फ़टाफ़ट पैडल मारते हुए उस गेट तक पहुँचा और साइकिल दीवार से सटा कर हांफता हुआ लोहे के गेट से झाँकने लगा।
उसने जैसे तैसे उस इमारत के दरवाज़े के सामने स्कूटर रोका , पैर नीचे पहुँचते जो नहीं थे। फिर उसने साइड स्टैंड बड़ी मुश्किल से लगाया और पीठ पर बंधे उस बच्चे के साथ ही नीचे उतरी। चार कदम चल कर सीढ़ियों तक पहुँची और फ़िर पलट कर गेट की तरफ मुँह कर कर धीरे धीरे बैठने लगी, अपने दोनों हाथ पीछे ले जा कर फ़िर उसने देखा की बच्चा ठीक से सीढ़ीओं पर बैठ गया है , और फ़िर उसने वो दुप्पटे की गाँठ खोल दी।
मैं अब भी गेट की उन लोहे की सलाखों के पीछे से उसे देख रहा था।
फ़िर मुझे वो बच्चा नज़र आया, नौ या दस साल का ही था, चेहरा बिलकुल अजीब सा था, होठों से लार टपक रही थी, उसके दोनों हाथ अलग अलग दिशा में हिल रहे थे, वो कुछ अजीब सी आवाज़ें निकाल रहा था, अपनी माँ को दोनों हाथों से जकड़ने की कोशिश कर रहा था , और वो उसे पकड़ पर उसे अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश कर रही थी। करीब पंद्रह मिनट तक ये जद्दो जहद चलती रही, कभी वो दुप्पटे को संभालती कभी उसे, कभी रुमाल से उसका मुँह पोंछती कभी उसके साथ नीचे बैठ कर उसे मनाने की कोशिश करती। वो बहुत ज़ोर से अजीब सी आवाज़ें कर रहा था। फ़िर किसी तरह वो उसे अंदर ले गयी।
ऐसा लगा जैसे किसी ने अंदर से मुझे जंझोर दिया हो , मुझे सब समझ में आ गया था, गेट से दो कदम पीछे हटा और ऊपर लगे बोर्ड पर नज़र गयी "समर्थ स्कूल ऑफ़ मेंटली चैलेंज्ड" , आँखें पानी से भरी हुईं थी फिर भी बोर्ड पर लिखा साफ़ साफ़ नज़र आ रहा था। मेरे पैर अब जवाब दे रहे थे, मैं गेट से हट कर दीवार पर पीठ सटा कर आसमान तांकने लगा। सीने में एक अजीब सी घुटन होने लगी थी।
ये मुझसे क्या हो गया, ये मैंने क्या कर दिया, ये रोज़ इस तरह यहाँ अकेली आती है, अकेली जूझती है और मैं उसका मज़ाक उड़ाता रहा। और उसने क्या किया, बस मुझे देख कर मुस्कुराती रही, सिर्फ मुस्कुराती रही। किस मुश्किल से उसने उसे स्कूटर से नीचे उतारा था , ना जाने कैसे बांधा होगा खुद से , ना जाने वो ये रोज़ कैसे कर लेती है। कैसे हैं ये लोग, कहाँ से लाते हैं ऐसा दिल, कहाँ से लाते हैं ऐसी हिम्मत, मैंने दोनों हथेलियों से आँखें पोंछी , और फिर उन लोहे की सलाखों से झाँकने लगा। वो सीढ़ियों पर बैठी थी कोई किताब हाथ में लिए , उसके वापस आने का इंतज़ार कर रही थी शायद।
मन किया की उससे जा कर माफ़ी मांग लूं , पर हिम्मत नहीं हुई।
कदम वापस लिए , दिवार से सटी साइकिल को लिया और वापस उस बरगद के पेड़ की तरफ जाने लगा। उसका मुस्कुराता वो सुन्दर सा चेहरा अब भी ज़हन में आ रहा था।
सच में झाँसी की रानी ही तो थी , झाँसी की रानी।
Picture from :http://www.visualphotos.com/photo/2x4284372/woman_reading_book_on_stairs_1835156.jpg
Nice One
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी कहानी है…मन को छू जाने वाली, बधाई आपको इतना अच्छा लिखने के लिये।
ReplyDeleteबहुत खूब मिथिलेश जी
ReplyDeleteबहुत उम्दा सर
ReplyDeleteTHE BEST...
ReplyDeleteBeautiful, touching, very real. More power to your pen.
ReplyDeleteNyc
ReplyDeletebeautiful, made me cry.
ReplyDeleteThis short story is really touching and I hope the moral of the story will always encourage us (the readers) not to make fun of others, especially when we are unaware of their truth. Very beautiful story, very good use of words and it reminded me of the narrative style of Premchand,keep it up !!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसर दिल को छुआ है लफ्ज़ो ने, जज्बातो ने……
ReplyDeleteबहुत सरल और भिन्न रचना। लिखते रहिए
ReplyDelete@PuraneeBastee
हमारी भी वाहवाही स्वीकार कीजिए
ReplyDeleteदिल को झकझोरने वाली अत्यंत ही मार्मिक कहानी
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन सर जी वाह