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Thursday, December 22, 2011

वो रोज़ आता है....


वो रोज़ आता है...
झांकता है ... खिडकियों से... पर्दों में सुराख ढूंढता है...
मेरे चेहरे पे नज़र रहती है उसकी...  वो खूब निशाने लगाता है..
वो रोज़..   आता है...

मैंने कई बार मुह फेरा.. करवट बदलकर..
मैंने चादरें ओढ़ कर खूब उसे भगाया.. 
वो किसी अपने की तरह .. फिर भी मुझे जगाता है..
वो रोज़ आता है..

परिंदों की कुछ आवाजें.. टकराती हैं जब ठंडी मध्हम हवाओं से..
काली रातों की स्लेटों में .. वो लाल स्याही फैलाता है.. 
वो रोज़..  आता है.. 

चेहरे बदल जायेंगे  .. घर बदल जायेंगे ..
खिडकियों पे होंगे परदे नए
वो छप्परों में पड़ी दरारें ढूंढेगा नयी .. टूटी खिडकियों से .. फिर टकटकी लगाएगा..
वो रोज़.. हर रोज़ आएगा..


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