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Thursday, December 15, 2011

फिर दफ्तर निकल जाऊँगा..


रोज़ शाम को घर पहुँचता हूँ .... दरवाज़े के पीछे लगी उन खुठिओं में ... दफ्तर की बेड़ियाँ टांग देता हूँ ...
गला रोज़ की तरह आज भी तंग है... पैरों को वापस  जमी पर रखने का दम .. अब बचा नहीं....
नींद...  शाम से आँखों पर दस्तक दे रही है... हाथों की उन दो उंगलीओं में कलम के  निशान अब भी हैं...
मेजों पर पड़ी उन मुर्दा  फाइलों  की तरह.. मैं भी पड़ा हूँ अपने बिस्तर पर... कुछ सोचता हुआ सो जाऊँगा..
कल उठूँगा सुबह ... बेड़ियाँ उतारूंगा उन खुठिओं से... पहन कर ... फिर दफ्तर निकल जाउंगा...

दरवाज़े पर ताला लगा कर... ख्वाइशों को  घर में  बंद कर... फिर दफ्तर निकल जाऊँगा..

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